परमेश्वर से कैसी इच्छा करनी चाहिए ?

परमेश्वर आपके कल्याण के खिलाफ ले जाने वाले आपके इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर सकता !
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय ! प्रत्येक ब्रम्हाण्ड का मालिक ब्रम्ह-शक्ति है । प्रत्येक ब्रम्हाण्ड ब्रम्ह-शक्ति का कार्य क्षेत्र है । तो जितने ही ब्रम्हाण्ड हैं, उतने ही  ब्रम्ह-शक्ति हैं । और उतने ही ब्रम्हा-विष्णु-महेश हैं । इन सभी की संख्या उतनी उतनी है । और सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों का संचालक जो है, वह परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् होता है । सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों का मालिक वह परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह एकमात्र 'एक' ही है । ऐसे ऐसे असंख्य ब्रम्हाण्ड पैदा होते रहते हैं उसके यहाँ । हम-आपको कौन पूछे ? हम लोगों को क्या जानता है वह ? हम लोगों को क्या समझता है वह ? हाँ, एक बात जरूर है कि जब हम-आप उसके लिये ईमान से कदम बढ़ायेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया हमको उसके तरफ से अनिवार्यत: मिलेगी । तब यह नियम लागू नहीं होगा कि हम लोग इतना अधिक हैं तो क्या जानें? तब यह नियम लागू नहीं होगा । मोबाइल फोन आपके पास है तो यहाँ से टेलिफोन आप कर रहे हों दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई या कोलकाता । कितने आवाज गुजर रहे हैं आसमान में लेकिन ऐसा संकेत है कि आप जहाँ जिसको फोन कर रहे होंगे, वही सुनेगा । वह आपके पास कर रहा होगा तो उसकी आवाज आप ही सुन रहे होंगे। सब भरा भरा तो है । चारो तरफ आवाज ही आवाज तो भरा है । आपका पाकेट भी आवाज से भरा है । पाकेट रेडियो लेकर के पाकेट में न बज रहा है कि नहीं । जिस स्टेशन का पकड़ा दिये हैं, बस वही बोल रहा है । 
साधन दीजिये, लाभ लीजिये । सुविधा दीजिये, सुविधा का लाभ लीजिए । सब तो भरा पड़ा ही है । इसमें जो साधन सुलभ करायेंगे, उस लाभ से आप लाभान्वित होंगे । उसी तरह से परमेश्वर से मोक्ष पाने के लिये साधन रूपी शरीर है । आप शरीर को परमेश्वर को दीजिये, परमेश्वर वाला सारा लाभ लीजिये । 'साधन धाम मोक्ष कर द्वारा ।' यह मानव योनि भोग के लिये नहीं है । यह मोक्ष के दरवाजे तक जीव को ले जाने के लिये साधन है । जैसे बिजली है, साधन दीजिए और रोशनी लीजिए । बिजली गरम है कि ठन्डा ? जैसा साधान दीजिए वैसा लाभ लीजिये । उसी तरह से परमेश्वर ऐसा सर्व साधारण सम्पन्न है कि जो भी साधन सर्वशक्ति-सत्ता सम्पन्न परमेश्वर को देंगे, जो साधन दीजिएगा वह लाभ पाइयेगा । यदि आप शरीर दे देते हैं उसको तो सभी साधनों से युक्त यह आपका शरीर है, इसलिये मोक्ष तो मिलेगा ही मिलेगा, जो कुछ भी आपको चाहिये एक मानव योनि में, जो अनैतिकता से युक्त न हो, विकृतता के परिभाषा में न आता होदुर्गुण की परिभाषा में न आवे, तो सद्गुण के अन्तर्गत रहने वाले कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो आपको परमेश्वर से न सुलभ न हो । आप जिस योग्य, अपने शरीर को जिस योग्यता के अन्तर्गत परमेश्वर को सुपुर्द कर रहे हैं, हमको नहीं लग रहा है कि उस योग्यता के अन्तर्गत मिलने वाली जो भी उपलब्धि जो ईमान-सच्चाई के अन्तर्गत मिलनी चाहिये, हमको नहीं लग रहा है कि वह आपको न मिले । परमात्मा आपके इच्छाओं को मारता नहीं है । परमात्मा आपकी इच्छाओं को मारता नहीं है । हाँ, जब वह कुवृत्ति से युक्त हो गई, दुष्प्रवृत्ति से  युक्त हो गई तब जा करके आप लाख चाहेंगे-कहेंगे आपके कल्याण के खिलाफ जाने वाले किसी भी बात को परमात्मा नहीं करेगा । आप रोने लगें या चिल्लाने लगें, आपके दु:ख-कष्ट की कोई परवाह परमेश्वर नहीं करेगा यदि वह आपके कल्याण  के खिलाफ है तो । शंकर और शक्ति इतना ही सोच लेते तो उनके सब सिध्द असुर-राक्षस क्यों होते ? शंकर जी और शक्ति के यहाँ ऐसा चिन्तन ही नहीं है । बस आप खुश कर दिये आ जो चाहें ले लीजिए । आ चाहे बनिए, आ चाहे भाड़ में जाइये । परमेश्वर ऐसा नहीं कर सकता । आप लाख तड़पिये, रोइये, गिड़गिड़ाइये-- परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो आपके कल्याण के खिलाफ हो । और वह सब कुछ करेगा जो आपके कल्याण के अनुरूप होजो आपको मुक्ति अमरता से युक्त रखने वाला हो । 
 तो इस तरह से हमारे समझ में नहीं आता है कि यह बात सोचा जाये कि परमेश्वर के प्रति समर्पण-शरणागत होना पड़ेगा ! शरणागत हो जाना पड़ेगा ! यह कौन सोचेगा ? नि:सन्देह बेइमान ही सोचेगा । यह कौन सोचेगा, चोर सोचेगा । जो बेइमान होगा, जो चोर होगा, जिसको चोरी-बेइमानी की आवश्यकता संसार में भी बाकी होगी, तो वही सोच सकता है । सही और ईमान वाला व्यक्ति परमेश्वर में रहने-चलने से क्यों सोचने लगा ? उसको या उसके परिवार को जो परमेश्वर नहीं देगा और कुछ भी दे सकता है । वही 'दोष-दुर्गुण, वही जो दोष-दुर्गुण के परिभाषा में आने वाली चीजें होंगी, वही परमेश्वर नहीं देता है । परमेश्वर एक बीड़ी सुलगाने के लिए आपको नहीं देगा लेकिन बण्डल का बण्डल यदि अगरबत्ती सुलगाते हो तो वह जरूर देगा। परमेश्वर जो है एक पाउच नहीं दे पायेगा लेकिन दूध और फल का रस भी यदि आपके जरूरत के अन्दर है, चाहत है तो वह जरूर देगा । जरूर देगा। परमेश्वर का कोई हिसाब-किताब नहीं होता है । आप क्या करते हैं-- इसके लिये कोई हिसाब-किताब नहीं होता है। बस एक परमेश्वर को चाहिए कि आप ऐसे मत कीजिएगा। जो धर्म के अन्तर्गत आता हो, खान-पान रहन-सहन वह सब कुछ कीजिये न ! जो सही के अन्तर्गत आता हो, जिसमें आप पर कोई अंगुली नहीं उठा सके -- देखो न परमेश्वर वाला है और ऐसा ऐसा खा रहा है; परमेश्वर वाला है लेकिन ऐसा सो रहा है; परमेश्वर वाला है लेकिन ऐसा चल रहा है; ऐसा कर रहा है यानी प्रतिकूलात्मक कोई अंगुली न उठा सके । ऐसे हर चीज परमेश्वर देगा । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय !
अब हम लोग अपने मूल विषय पर आवें । ऐसे सब होता ही रहेगा। ऐसा नकारात्मक रहे । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय! तो जैसे बताये कि शरीर, जीव, आत्मा और परमात्मा; शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर; शरीर, जीव, ब्रम्ह और परमब्रम्ह; बॉडी, सेल्फ, सोल और गॉड; चाहे जिस्म, रूह, नूर और अल्लाहतआला --- ये सब अलग-अलग हैं । ये तीनों तीन हैं । इसमें किसी का भी परिचय-पहचान पाना होगा तो तीनों का तीनों का तीनों की जरूरत पड़ती है । तीनों की आवश्यकता पड़ती है । न तो नाम पर्याप्त है, न रूप पर्याप्त है और न केवल स्थान ही पर्याप्त है । तीनों जब एकट्ठा होंगे तब आपका भरपूर पता-परिचय बनेगा । तब आपकी असली पहचान बनेगी । बात गौर कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं ? नाम-रूप-स्थान तीनों जब इकट्ठा होंगे तब जाकरके आपको परिचय-पहचान पूरा कहलायेगा । परमेश्वर में ऐसा नहीं है । परमेश्वर इसका अपवाद है । वह परमेश्वर क्या है? जो नाम है, वही रूप है और वही स्थान है । जो रूप है, वही स्थान है और वही नाम है । जो स्थान है, वहीं नाम है और वही रूप है । आई बात समझ में ? परमधाम भी वही है । परमतत्त्वम् भी वही है । क्या जानना है ? 'परमतत्त्वम्' को जानना है । किससे जानना है ? 'तत्त्व' से जानना है । किसको देखना है ? 'तत्त्व' को देखना है । किससे देखना है ? 'तत्त्व' से देखना है । कैसा लग रहा है सुनने में ? क्या जानना है ? 'तत्त्व' को जानना है । क्या दिखना है ? 'तत्त्व' को दिखना है । क्या पाना है ? 'तत्त्व' को पाना है । किससे पाना है ? 'तत्त्व' से पाना है । कैसे पाना है? 'तत्त्व' से पाना है । क्या बनना है ? ' तत्त्वनिष्ठ' बनना है । हर प्रकार से तत्त्व तत्त्व तत्त्व तत्त्व तत्त्व तत्त्व, अलग कुछ नहीं ! कोई पूछता है कि परमात्मा का रूप क्या है ? जबकि है कि 'एक अरूप अनीह अनामा' अरूप कहते, अनूपा कहते तब भी सही, लेकिन यदि कह दें कि परमतत्त्व रूप है तो कोई जानकार नहीं होगा जो मुंह नहीं लटकायेगा कि हाँ भाई सही है । एक बात किसी के पूछने दो कि परमतत्त्व रूप परमात्मा में बाकी सब पूरा खतम कैसे मिलेगा ? तो 'तत्त्व' से मिलेगा । कैसे जानोगे?  'तत्त्व' से जानोगे । कैसे देखेंगे ? तो 'तत्त्व' से देखेंगे । देखेंगे तो कैसा दिखाई देगा ? तो 'तत्त्वरूप' दिखाई देगा । कहाँ दिखाई देगा ? 'तत्त्व' में दिखाई देगा -- 'तत्त्व' में रहेगा । यानी नाम-रूप-स्थान सब वही है । जो कुछ भी, सब वही है । ये सारी सृष्टि, ये सारे आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह भी सारी शक्तियाँ भी उसी में रहती हैं। उसी से हैं, उसी में रहती हैं और उसी से प्रकट भी होती हैं । वह सबका उद्गम श्रोत है । वह सबका लय-प्रलय रूप है । वह सबका संचालक है । आप पैदा तो हुये हैं उसी से । आप इस शरीर में जीवित भी हैं और स्थित भी हैं उसी से । आप अन्तत: 'ज्ञान' से लय-विलय करेंगे तब भी उसी में और महाप्रलय के समय में भी लय-विलय होंगे तब भी उसी के अन्दर । (दोनों प्रकार के लय-विलय में) अन्तर यह रहेगा कि महाप्रलय के समय आप लय-विलय होते हैं तो आपका संस्कार भी सुरक्षित रहेगा जिससे जब अगली सृष्टि की रचना होगी तो आपको अपने संस्कार के अनुरूप ही फिर जनम मिलेगा । यानी फिर योनियाँ मिलेंगी । हाँ, 'ज्ञान' के माधयम से जब आप (लय-विलय होंगे या) उसमें जायेंगे तब आपका जनम-मृत्यु समाप्त रहेगी। अमरत्व के साथ रहेंगे । यदि किसी परिस्थिति वश किसी सन्देश वाहक के रूप में परमेश्वर आपको भेजता भी है तो जनम-मृत्यु के सिध्दान्त में नहीं जायेंगे । उसको पूरा करेंगे फिर वापस परमधाम चले आयेंगे । क्या समझे ? यानी परमेश्वर भेजता है किसी सन्देश के लिये या किसी कार्य के लिये । इसका मतलब यह भी नहीं है कि आप जनम-मृत्यु के फारमूला में आ जाये, जनम-मरण के चक्कर में आ जाये । नहीं ! परमेश्वर वाला कार्य करके वापस परमधाम (अमरलोक) को चले जायेंगे। यानी जनम-मृत्यु के फारमूला में नहीं आयेंगे । आवागमन के फारमूला में नहीं रहेंगे । उसमें पूरी संचालन प्रक्रिया ही परमेश्वर के हाथ में रहेंगे। माया, ब्रम्हा, शंकर, महेश, विदुर,हरि, यमराज-- ये सब किनार रहेंगे । बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय !
इसके पहले वाले चर्चा में यह बात आयी थी कि सबका तो नाम-रूप- स्थान होता है किन्तु परमेश्वर में नाम-रूप-स्थान तीन नहीं होता है।  ईश्वर में भी नाम-रूप-स्थान तीन हैं। आत्मा में भी नाम-रूप-स्थान तीन हैं । सबमें नाम-रूप-स्थान तीन हैं, सिवाय परमेश्वर के। सिवाय खुदा-गॉड-भगवान् के । सबमें तीन हैं । उनका एकमेव एक ही एक । वहाँ दो यानी दूसरा शब्द ही नहीं है । विद्आउट सेकण्ड है-- अद्वैत्तत्तव है । इसीलिए कहा गया है -- 'एको ब्रम्ह द्वितीयो नास्ति' । कहा गया है -- 'वन्ली वन गॉड' । कहा गया है -- एक ॐ कार, सत्सीरी            अकाल । कहा गया है -- तौहीद या एकेश्वरवाद । तो इस्लाम में जो तौहीद है और सनातन में वही अद्वैत्तत्तव है । 'वन्ली वन गॉड' क्रिस्चियन में है । यानी सबमें आप देखेंगे कि एकमेव 'एक', एकमेव 'एक', नाम-पता तीन हो जायेगा न ! नाम-रूप-स्थान तीन हो गया न ! वहाँ तीन का या दो का भी नहीं है । विद्आउट सेकण्ड है । अद्वैत्तत्तव है अर्थात् हर प्रकार से एकमेव 'एक', हर प्रकार से एकमेव 'एक' । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय!
आइये ! अब हम लोग यह देखें कि आत्मा  और शक्ति (पावर) में अन्तर क्या है । सब वैज्ञानिक तो एक ही कहते हैं । जो आत्मा है वही शक्ति भी है । सारे अध्यात्मवेत्तागण  आत्मा ही शक्ति है, शक्ति ही आत्मा है, आत्मा ही जीव है और जीव ही आत्मा है, बस आत्मा ही सब कुछ है --शक्ति ही सब कुछ है, वही जीव है वही आत्मा है --ऐसा कहते हैं। इनको पता ही नहीं चल पा रहा है कि सब कुछ अलग-अलग हैं । इन्हें थोड़ा तो टटोलना चाहिये कि सब कुछ अलग-अलग होने का कोई मतलब होगा । नहीं तो थोड़ा-थोड़ा मतलब होगा । आत्मा और शक्ति में अन्तर कोई बन्धु बतायेंगे ? हाथ उठाइये ! यदि तकलीफ न हो तो एक मिनट बताने का कष्ट करें । हमारे बन्धु ने बताया कि आत्मा में स्थिरता है और शक्ति में चंचलता और परिवर्तनशीलता है । यह सही है लेकिन आप दूसरा बताइये । यह ठीक है । कोई दोनों बात से हटकरके बताइये। कोई प्रमुख अन्तर बताइये । देखिये, प्रमुख अन्तर है कि आत्मा विशुध्द चेतन है जबकि शक्ति चेतना विहीन है। ये लक्षण प्रमुख में से हैं । स्थिरता-अपरिवर्तनशीलता और चंचलता- परिवर्तनशीलता--आत्मा में शब्द प्रधान ज्योति गौण और शक्ति में ज्योति प्रधान शब्द यानी ध्वनि गौण होता है । शब्द गौण होने का माने है कि ध्वनि गौण । यह सब भी प्रमुख में से ही है । तो इस प्रकार से ये अन्तर दोनों में हैं । वैज्ञानिक बन्धुजन तो पढ़ते-पढ़ाते हैं कि सोल जो है वह ही पावर है, जो पावर है वही सोल है। आध्यात्मिक भी यही सब बोलते हैं । ये तो ऐसे खोज-खोज करके बोलते हैं कि लगता है कि कहाँ से खोज कर लाये हैं । सब का सब व्यर्थ का बकवास है ! ये क्या कहते हैं कि ग्रन्थों में लिखा है कि चांदनी रोशनी है, सूरज की रोशनी है, तारों की रोशनी है-- ये सब रोशनी हैं ये आत्मा ही तो हैं, ईश्वर ही तो हैं । इनको यह भी नहीं महसूस हो रहा है कि दिव्य तेज यानी दिव्य रोशनी में और भौतिक रोशनी में क्या अन्तर होता है। भौतिक रोशनी कॉन्सशलेस है और आत्मा (दिव्य रोशनी) प्योर कॉन्सश है, विशुध्द चेतनायुक्त है । वह चेतना रहित है और यह विशुध्द चेतन है। ऐसे ऐसे हजारों सूरज उदित हो जायें तो दिव्य ज्योति की बराबरी नहीं कर सकते हैं । मुर्दा सामने पड़ा हो और चेतन ज्योति का एक मामूली सा अंश छिटक करके उसमें प्रवेश कर जाये तो तुरन्त वह मुर्दा जिन्दा होकर बैठ जायेगा ! तुरन्त उठकर बैठ जायेगा ! ऐसा क्यों ? क्योंकि उसमें जीवनी शक्ति है । चेतना है । जीवनी शक्ति है उस दिव्य ज्योति में । और इस भौतिक रोशनी में जीवनी शक्ति नहीं है । यह चेतना विहीन है । यह जड़वत् है । यह जीवनी शक्ति की सहायता करेंगे। जितने ये सब चीजें हैं सब जड़वत् हैं । कॉन्सशलेस हैं, इसलिये ये सहायक हैं चेतन का। यह देखिये (माइक पर ठोकर मारते हुये) यह सहायक है हमारे आवाज को तेज कर दे रहा है, विस्तारित कर दे रहा है। यह शब्द नहीं बोलेगा, यह सत्संग नहीं करेगा, यह कथा-प्रवचन नहीं करेगा लेकिन हमारे आवाज को तेज करके विस्तारित करेगा । यानी हमारी सहायता कर रहा है । कोई भी चीज हो, यह हवा ही देख लीजिये। यह हवा ही है । यह प्राण बन करके मुर्दा को जीवित नहीं करेगा । हाँ, प्राण वाले शरीर को राहत देगा । यदि गरमी हो रही होगी तो शरीर को राहत देगा । ये सारे अन्न, जल, अग्नि, हवा किसी को जीव नहीं दे सकते-- प्राण नहीं दे सकते लेकिन सहायक होंगे । जीव जिस शरीर में रहेगा उसको अपने क्षमता वश सहायता करेगा । क्यों ? क्योंकि जीव परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है । इनकी मजबूरी है कि ऐसे शरीरों को सहायता करे जिसमें परमेश्वर का प्रतिनिधि जीव रह रहा हो । ये उसी समय अपनी सहायता वापस ले लेंगे जब परमेश्वर अपने प्रतिनिधि जीव को वापस ले लेगा यानी जीव को शरीर से छोड़ा देगा। उसी समय संसार से जो भी सहायता भौतिक रूप से मिल रहा था, वह सब उल्टा हो जायेगा । जो पहले सहायक रूप में काम कर रहा था, वही अब (जीव के निकल जाने पर) शरीर को सड़ाने लगेगा । जो हवा प्राण वायु बन करके सहायता कर रहा था, वही हवा दुर्गन्धा फैला करके नाक दबवा करके दूर से हटायेगा । इसी प्रकृति के सारे संसाधन उसी समय आपके शरीर की खिलाफत करने लगेंगे जिस समय परमेश्वर अपना प्रतिनिधित्व वापस ले लेगा । उस समय तो हर ये चीजें आपके शरीर की सहायता करने के लिये मजबूर हैं जिस समय तक परमेश्वर का प्रतिनिधि जीव इस शरीर में है। 
अब तक हम लोग आत्मा और शक्ति के अन्तर को जान चुके हैं। ब्रम्ह और शक्ति के अन्तर को जान चुके हैं । अब एक बात गौर कीजियेगा । दो शब्द हैं जिनका अन्तर हर कोई शायद न बतावें-- ऐसी दिक्कत हो सकती है । एक एक्शन और दूसरा मोशन है । एक है कार्य और दूसरा है गति । जड़ पदार्थों में एक्शन नहीं होता है, वे कॉन्सशलेस पदार्थ जो हैं। कोई जड़ पदार्थ एक्शन नहीं कर सकता । हाँ, मोशन उसमें होता है । अर्थात् गति उसमें होती है किन्तु एक्शन चेतनायुक्त शरीर से होता है जिसमें जीव का वास हो । जड़ पदार्थ कार्य नहीं कर सकता । कार्य तो कोई जीवित प्राणी ही कर सकता है । 
परमात्मा से प्रकट और पृथक् हुये आत्मा (हालांकि आत्मा उसका शुध्द नाम नहीं है किन्तु प्रचलन में आत्मा ही कहा जाता रहा है, ऐसे उस आत्मा) से जब शक्ति जो प्रचण्ड तेजपुँज के रूप में थी, जो अक्षय प्रचण्ड तेजपुँज थी, जब पृथक् हुई और प्रवाह में अति वेग से आगे चली तो ज्योतियाँ चारो तरफ छिटकती हुई चलती गयी। आप से एक बात बताऊँ कि देहात में एक दन्त कथा है जो अपने आप में सही है । आप लोग आकाश गंगा को देखते होंगे। आकाश गंगाओं को तो नहीं देखते होंगे, आकाश गंगा देखते होंगे । उत्तर से दक्षिण तरफ रास्ता जैसे लगता है। देहातों में लोग कहते हैं कि यह भगवान जी का रास्ता है । देहात में दन्त कथा के रूप में लोग कहते हैं  कि देखो देखो भगवान जी का रास्ता है । यह बात तो सही है कि रास्ता है लेकिन भगवान जी का नहीं, शक्ति का रास्ता है । जो शक्ति प्रवाहित हुई एक वेग के प्रवाह में चली । तो उसके जो छिटकते कण चले गये वे तारों के रूप में होते गये। जो छिटकते गये वह तो अपने गति में वहीं तारे अपने छिटकते गये । आप कहेंगे कि ब्रम्हाण्ड भी है न ! आपका यह ब्रम्हाण्ड भी जिस समय उत्पन्न हुआ था उस समय का साइन्टिफिक रिकार्ड बता रहे हैं, विज्ञान का रिकार्ड बता रहा हूँ, मांगियेगा तो प्रमाण पेश हो जायेगा, प्रमाण मिल जायेगा । यह भी विश्व स्तरीय वैज्ञानिकों का रिपोर्ट है । जिस समय इस ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति हुई थी, जिस समय इस ब्रम्हाण्ड की उम्र एक मिनट का अरब अरब अरब अरबवें हिस्सा के बराबर थी, उस समय इस ब्रम्हाण्ड की लम्बाई-चौड़ाई क्या थी ? उस समय इस ब्रम्हाण्ड की लम्बाई -चौड़ाई थी एक सेन्टीमीटर के दस लाख अरब अरब अरब अरबवें हिस्से के बराबर । यह ब्रम्हाण्ड जो आज इतना विशालकाय दिखाई दे रहा है, इसकी उस समय क्या लम्बाई थी ? एक सेन्टीमीटर के दस लाख अरब अरब अरब अरबवें हिस्से के बराबर थी । आज यह कितना विशालकाय है ?
आप जानते होंगे कि एक सेकेण्ड में यह प्रकाश जो है, वह तीन लाख किलोमीटर चलता है। फिर एक मिनट में कितना चलता होगा ? 60 का गुणा कर दीजिये । फिर एक घण्टा में ? पुन: 60 का गुणा कर दीजिये । फिर एक दिन में ? कर दीजिये 24 का गुणा । फिर एक महीने में कितनी दूर जाती है ? 30 गुना । इसी प्रकार एक वर्ष में कितनी दूर जाती है यह प्रकाश एक वर्ष के लिये 12 से गुणा कर दीजिये । यानी एक वर्ष में 12 गुणा दूर जायेगा। (ऐसे एक वर्ष में यह प्रकाश जितनी दूर जाती है वह दूरी एक प्रकाश वर्ष कहलाती है । अर्थात् एक वर्ष में प्रकाश द्वारा तय की गयी दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहते हैं । ) इस प्रकार प्रकाश को ब्रम्हाण्ड के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में कम-से-कम पन्द्रह अरब प्रकाश वर्ष (इससे ज्यादा ही) लग जाते हैं । यह जो है प्रकाश-वर्ष, लगभग ब्रम्हाण्ड की यही लम्बाई है । लम्बाई-चौड़ाई व्यास है । ब्रम्हाण्ड के पैदा होने के बाद अब तक की लम्बाई है पन्द्रह अरब प्रकाश वर्ष । इतना विशालकाय ब्रम्हाण्ड, इतना विशालकाय ब्रम्हाण्ड ! ब्रम्हाण्ड उत्पत्ति के समय कितना बड़ा था ? सुपर कम्प्यूटर की क्षमता नहीं है पकड़ने की । केवल गणित पकड़ेगा । तो उसी तरह से ज्योति पुँज जब ज्योतियाँ छिटकते चलीं किनारे वही आज आकाश गंगा है । कितने आकाश गंगायें हैं ? गौर कीजिये, इससे इस ब्रम्हाण्ड के लम्बाई-चौड़ाई नापियेगा आप लोग । यह जो सूरज है, आप अपनी धरती देख रहे हैं-- चालिस हजार किलोमीटर इसकी परिधि है । लगभग तेरह हजार किलोमीटर खोदाई कीजिये तो उस पार अमेरिका मिल जायेगा । अभी यहाँ बैठ करके तेरह हजार किलोमीटर खोदाई कीजिये, आठ हजार मील खोदाई कीजिये तो अमेरिका मिल जायेगा । अमेरिका में बैठकर यही तेरह हजार किलोमीटर की खोदाई करेंगे तो भारत मिल जायेगा। यह आठ हजार मील लगभग तेरह हजार किलोमीटर धरती का व्यास है। और पचीस हजार मील अथवा चालीस हजार किलोमीटर इसकी परिधि है। लगभग यहाँ से साढ़े बारह हजार किलोमीटर, कुछ ऐसा ही, यहाँ से अमेरिका पड़ता है हवाई जहाज से । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय ! 
तो इस प्रकार से ऐसे विशाल धरती के समान बारह सौ करोड़ पृथ्वियों को एक साथ प्रकाशित करने (दिन बना देने) की क्षमता है एक सूरज में । एक इस पण्डाल को ही ले लीजिये जिसमें रात में रोशनी करने के लिये कितने बल्ब अथवा टयूब की जरूरत पड़ती है? तब भी दिन नहीं होती है । शायद एक हजार वेपर लाइट भी लगा दिया जाय तब भी दिन नहीं होगा । ऐसे ऐसे बारह सौ करोड़ पृथ्वियों को एक साथ प्रकाशित करने की (अर्थात् दिन बना देने की) क्षमता-शक्ति इस सूरज में है । बारह सौ करोड़ पृथ्वियों को एक साथ दिन बना देने की क्षमता है इस सूरज में । और (ब्रम्हाण्ड के एक आकाश गंगा में) इससे भी लाख गुणा बड़े-बड़े तारे हैं, इससे भी लाख गुना बड़े-बड़े तारे ! और एक आकाश गंगा में लगभग दस हजार करोड़ तारे हैं । एक आकाश गंगा में लगभग दस हजार करोड़ तारे हैं । और ऐसे ऐसे लगभग दस हजार करोड़ आकाश गंगायें हैं एक ब्रम्हाण्ड में । और ऐसे ऐसे असंख्य ब्रम्हाण्ड हैं जिसका मालिक है परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् । वह अकेले सीता को खोज रहा था जंगल में । 
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी, तुम देखी सीता मृग नैनी ।

देखने वाला क्या समझे ? सती शंका में पड़ गयीं । ई कौन भगवान्? यह कौन भगवान् है भाई ! क्यों नहीं पड़ जायेगी ? लेकिन ज्ञान पाने के समय जिस किसी ने देखा, जरा हनुमान जी से पूछिए कि वह कौन थे? लक्ष्मण जी से पूछिये कि वह कौन थे ? सेबरी से पूछिये कि वह कौन थेहनुमान जी से पूछिये कि वह कौन थे ? अर्जुन जो भगवान् श्रीकृष्ण जी को ' हे कृष्ण, हे सखे, हे यादव' मान करके, बराबरी का मान करके कभी हे यादव, कभी हे सखा, कभी हे कृष्ण कह करके सम्बोधन करते थे तो इस समय दिव्य-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि भी मिली तो हाड़ कांपने लगा । फट हाथ जोड़ करके --
'त्वमादि देव: पुरुष: पुराण: त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥
वही अर्जुन था, वही रणबाकुरा अर्जुन ! हाड़ कांपने लगा उसका ! बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽ जय ! तो इस तरह से जो है केवल भाई शरीर मात्र से किसी चीज के सर्वेसर्वा निर्णय नहीं हो सकता ।
जैसे एक पक्ति सभी महात्मा जी लोगों को याद है कि --
बड़े भाग्य मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा ॥
अब इस पक्ति को कोई जरूरत नहीं कि आप इस पण्डाल से जानें। हर मंच से हर महात्माजी लोग इस बात को बोलते होंगे । 'बड़े भाग्य से मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा ॥' इस बात को सब लोग बोलते होंगे । उसी तरह से आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल -- ये पांच भौतिक पदार्थ तत्त्व हैं । यह प्राय: सबके यहाँ बोला जाता है । अन्तर इतना ही है कि बड़े-बड़े पण्डालों में, बड़े-बड़े किताबों में लिखा जाता है, कोई आकाश के बाद धरती कहता है तो कोई धरती के बाद अग्नि कहता है । कोई जल के बाद हवा कहता है तो कोई हवा के बाद सीधे धरती कहता है । यह उस तरह से है कि जैसे एक राज पण्डित जी थे । अब दो मिनट के लिये एक कहानी भी आ गया ।
 एक राजपण्डित जी थे --राजपुरोहित । उनका एक मूर्ख लड़का था । सोचे कि अब तो बड़ा विचित्र है । राजपण्डिताई तो हम से निकल जायेगी । हमारे घर से निकल जायेगी । कैसे घर का काम चलेगा ? तो उसको (अपने लड़के को) खूब रटायें । सारा शास्त्र उसको रटा दिये। और तब सोचे कि अपने जगह पर अपने को हटा करके इसी को भर्ती करवा दें। राजा साहेब से अपने को हटाकर राजा साहेब से इसी केी नियुक्ति करा दें । तो खूब शास्त्र-अर्थ रटाते-रटाते रह कर राजा साहब से कहे कि हजूर ! हम वृध्द हो गये । अब हमारा मस्तिष्क उतना काम नहीं कर रहा है । यह लड़का जो है, तैयार हो चुका है । हुजूर, यह लड़का सभी शास्त्रों का जानकार है । हुजूर, तो इसका परीक्षा हो जाता तो हमारे जगह पर इसकी नियुक्ति हो जाती । राजा साहेब कहे कि क्या हर्ज है ! परीक्षा हो जायेगी । अब राजा साहेब बुलाए उसको । राजा साहेब उसके ज्योतिष का जाँच करना शुरू कर दिये । कुछ मुट्ठी में लेकर कहे कि बोलिये इस मुट्ठी में क्या है ? अब वह जो लड़का था, उसके आधार पर लगा बोलने। गोल है, गोल है, गोल है । राजा साहेब कहे, 'हाँ ।' वह बोला कि बीच में छेद है, बीच में छेद है, बीच में छेद है। राजा साहेब बोले, 'हाँ ।' वह पुन: बोला कि धातु है, धातु है, धातु है। मूल्यवान है, मूल्यवान है, मूल्यवान है । राजा साहेब कह दिये, 'हाँ।' अब हाँ हाँ हाँ सुन करके उसकी मूर्खता अन्दर आ गयी । अब सोचा कि क्या शास्त्र देखना है ! सही हो जाए जो बोल रहा हूँ । सब सही ही हो रहा है । शास्त्र के ज्योतिष के अनुसार बोलना शुरू किया था । राजा साहेब हूँ हूँ हूँ करना शुरू कर दिये कि यह सही था । अब हूँ हूँ हूँ करने से उसे जोश मिला और जोश मिला दिया तो ग्रन्थ छोड़कर वह जो है, सीधे अब अपने बोलना शुरू कर दिया । 'परिपाटी परिपाटी परिपाटी' यानी आटा-चक्की का पाट ! यह नहीं सोचा कि आटा-चक्की का पाट कहीं मुट्ठी में आयेगा । अब उसकी मूर्खता यानी वह यह नहीं सोच सका कि जब हम शास्त्र से बोल रहे हैं तो हमें शास्त्र से ही बोलना चाहिये। राजा साहेब का हूँ हूँ सुना तो वाह-वाही में आ गया । सीधे बोला 'परिपाटी परिपाटी परिपाटी' । यह भी नहीं सोच सका कि कहीं हाथ में आटा चक्की का पाट नहीं आ पायेगा । राजा साहेब तो अपने मुट्ठी में अंगूठी लिये थे । गोल है-- सही है । बीच में छेद है-- सही है। यह धातु है -- सही है । कीमती है -- यह भी सही है । राजा साहेब हूँ हूँ हूँ कहते चले गये । फट वह सोचा कि गोल है तो परिपाटी है । यानी आटा-चक्की का पाट है । तो उसी तरह से जो है पढ़ करके भी, चुन करके भी इतना भी नहीं सोच पाते यह सब । कम से कम पढ़-सुन रहे हैं न।
तीन बातों पर सावधानी बरतें । क्रम क्या है ? क्रमश: उत्पत्ति क्या है ? क्रमश: उसको किस सिरियल में रखें । जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल-- यह इसका क्रम है । थल, जल, अग्नि, वायु और आकाश -- यह इसके नीचे से ऊपर वाले क्रम है । यह पांच का क्रम है। बहुत कम मिलेंगे  जिनको यह क्रम सही रूप से मालूम हो । ये पांच नाम तो प्राय: सब के यहाँ मिलेगा जो पन्च भौतिक पदार्थ तत्त्वों का वर्णन करेंगे । ये पांच नाम तो प्राय: सबके यहाँ मिलेगा लेकिन क्रम क्या है, इन पांचों का उत्पत्ति क्रम क्या है ? यह बहुत कम से कम के यहाँ मिलेगा। कोई आकाश से अग्नि, फिर जल, वायु, थल कहेगा तो कोई आकाश, अग्नि, थल, वायु, जल कहेगा । यानी ऊटपटांग सब है ! फिर भी पांच नाम हैं हर किसी ने कहा है । अब क्रमश: यह देखना है कि हर किसी के अपनी तन-मात्रा होती है । यानी उन वस्तुओं का एक स्थूल रूप होता है और एक सूक्ष्म रूप भी होता है । उस सूक्ष्म स्थिति को तनमात्रा कहा जाता है । जैसे आकाश की तनमात्रा क्या है ? शब्द । पहले शब्द ही था। शब्द से जो कुछ सीधे मिला या बना, उसको आकाश तत्त्व कह दिया गया । हालांकि विज्ञान इसको पकड़ नहीं सका है। आकाश तत्त्व क्या है? ईथर कह करके छोड़ दिया । अभी पकड़ नहीं आया कि आकाश तत्त्व वास्तव में क्या चीज है । अब शक्ति और आकाश संयुक्त रूप में वायु तत्त्व को बनाये । वायु तत्त्व की तनमात्रा क्या है ? स्पर्श । अब वायु तत्त्व जो है, वायु तो वायु है, वायु में आकाश तत्त्व भी है । यानी शब्द तनमात्रा भी मिलेगा । लेकिन गौण रूप में मिलेगा, प्रधान रूप में वायु की तनमात्रा 'स्पर्श' है । तीसरा अग्नि है । शक्ति, आकाश और वायु तीनों संयुक्त रूप में अग्नि बनाते हैं और तीनों संयुक्त रूप में अग्नि है। प्रधान क्या है ? रूप । अग्नि की तनमात्रा है रूप । यह तनमात्रा 'रूप' जहाँ अग्नि होगी, जहाँ प्रकाश होगा वहीं प्राकृत रूप पैदा होगा । यदि अग्नि नहीं है, प्रकाश नहीं है तो वहाँ कोई रूप नहीं बनेगा । यहाँ अभी प्रकाश हटा दिया जाये, अभी प्रकाश हट जाये तो कहीं कोई रूप किसी को नहीं दिखाई देगा । इस प्रकार से एक और हलचल वाली बात बताऊँ । पूरे दुनिया के विज्ञान में पढ़ाया जाता है कि शक्ति को देखा नहीं जाता है । पूरे दुनिया के साइन्स में पढ़ाया जाता है शक्ति को देखा नहीं जा सकता है जबकि परिभाषा जो इसका दिया जाता है, वह कह रहा है कि शक्ति ही देखा जाता है । अब सवाल यह है कि आप देखें कि प्रकाश शक्ति का रूप है । यह परिभाषा है । ये लोग 'रूप' का क्या अर्थ समझते हैं ? एक सामान्य 'रूप' को ही ले लीजिए । हम क्या देखते हैं? हम आपको देख रहे हैं कि क्या देख रहे हैं ? नहीं नहीं नहीं ! हम आपको (आप के शरीर को) नहीं देख रहे हैं । आप हम सब जो कुछ भी देख रहे हैं, क्या देख रहे हैं ? न आप हमको (हमारी शरीर को) देख रहे हैं और न हम आप लोगों (आप लोगों के शरीर) को देख रहे हैं । हम लोग जो कुछ भी देख रहे हैं, वे वस्तुए नहीं है । हम लोग वस्तुओं को नहीं देख रहे हैं । जिस किसी वस्तु से, जिस किसी व्यक्ति के शरीर से जिस मात्रा में प्रकाश टकरा करके आप पर प्रकाश की किरण पड़ रही है यानी टकरा कर या रिफलेक्ट होकर या परावर्तित हो करके आपके ऑंख के रेटिना (लेन्स) पर पड़ रही है तो वह वस्तु थोड़े ही आप के ऑंख में चली गयी है ! उस वस्तु से टकरा करके प्रकाश आपके ऑंख में आ रहा है । ऑंख के रेटिना पर वह प्रकाश (रूप) पड़ रहा है ।  तो जिस आकृति या सकल या रूप का वह वस्तु होगा उसी रूप का प्रकाश हमारे ऑंख में आ रहा है। तो हमारे ऑंख में आ रहा है वह रूप-प्रकाश, हम देख तो रहे हैं उस आकृति का रूप-प्रकाश और बोलते हैं कि हम आपको (आपके शरीर को) या अमुक वस्तु को देख रहे हैं । हम इस बांस को देख रहे हैं । क्या देख रहे हैं? इस बांस को । कैसे हम जाने कि यह बांस है? बांस पर रोशनी पड़ी और टकरा करके हमारे आंख में आई । अब हमारे आंख की रेटिना ने पकड़ा उस रूप-आकृति को जो बांस से टकरा कर (परावर्तित होकर) आई है । उसी रूप-आकृति के माध्यम से हम पहचान लिये कि यह तो बांस है । पहचान लिये कि आप फलाँ हैं । देखे क्या? रोशनी को । हम सत्य के सिवाय और कुछ देख ही नहीं सकते ।
यही कार्यक्रम लखनऊ में चल रहा था गंगा मेमोरियल हाल में । लखनऊ विश्वविद्यालय के फिजिक्स के हेड ऑफ डिपार्टमेण्ट उसमें बैठे थे । सुनते-सुनते कि हम संसार की कोई वस्तु नहीं देख सकते, हम और कुछ देख ही नहीं सकते, जब भी हम देखते हैं शक्ति को ही देखते हैं -- प्रकाश को देखते हैं । हम शक्ति के सिवाय और कुछ देख ही नहीं सकते । शक्ति देखते हैं, जीव देखते हैं, आत्मा देखते हैं, परमात्मा देखते हैं ।  बार-बार यह आवाज निकल रही थी। उनको (फिजिक्स के विभागाध्यक्ष महोदय को) बर्दाश्त नहीं हो रहा था क्योंकि फिजिक्स के पढ़ाई में है कि प्रकाश को देखा नहीं जा सकता है । हम शक्ति को देख नहीं सकते हैं । इधर हम बोल रहे थे कि प्रकाश के सिवाय और कुछ देख नहीं सकते । हम शक्ति को ही देख सकते हैं, प्रकाश को ही देख सकते हैं । उनकी पढ़ाई है, पढ़ा रहे हैं कि प्रकाश को यानी शक्ति को कोई देख नहीं सकते । उनके विचारों को बरदास्त नहीं हो रहा था । सुनते-सुनते एक बार सुने, दो बार सुने । दो-चार बार सुनने के बाद अब उनसे रहा नहीं गया । गंगा मेमोरियल हाल चेयर हाल है । कुर्सियाँ हैं उसमें । उस पर बैठे हुये थे । (जब उनसे रहा नहीं गया तो) खड़ा हुये और बोले कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ । इस बीच में हम कहे कि कहिये, बड़े खुशी से     कहिये । बोले कि पहले मैं अपना परिचय थोड़ा दे दूँ । उनको जनाना था कि हमारे बात का प्रभाव पड़े । बोले कि मैं लखनऊ विश्वविद्यालय का फिजिक्स विभाग का हेड ऑफ डिपार्टमेण्ट हूँ । हम कहे कि बड़ी खुशी की बात है । कहे कि आपका सत्संग हमको बहुत अच्छा लगता है इसलिये मैं आता हूँ, सुनता भी हूँ लेकिन यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी । कहे कौन बात ? 'वही कि शक्ति देखी जा सकती है-- प्रकाश देखा जाता है, शक्ति ही देखी जाती है । हम कहे कि क्या बात है? क्यों अच्छी नहीं लगी ? क्या यह सही नहीं है ? हम पूछे क्या सही है ? उनका कहना था कि प्रकाश को देखा ही नहीं जा सकता है। लगभग आधे घण्टे से ऊपर वार्ता चली । वह भी जो इसके विषय में था अपना तर्क-वितर्क दे रहे थे और इधर से भी थोड़ा-बहुत मुख्य रूप से यही बात आयी । एक बात मैं जानना चाहता हूँ कि वस्तु उठ करके मेरी ऑंख में आ रही है या प्रकाश मेरे ऑंख में आ रही है? मेरी ऑंख प्रकाश को पकड़ रही है कि वस्तु को पकड़ रही है ? जिस आकृति का प्रकाश मेरे ऑंख में आ रहा है, उस आकृति के प्रकाश को पकड़ रही है । मेरे ऑंख में तो कोई वस्तु है ही नहीं । मेरे ऑंख वस्तु को कोई पकड़ने नहीं देंगे यानी न कोई वस्तु मेरे ऑंख में आयी । आंख पकड़ी किसको ? देखने का काम कर रही है ऑंख, रूप पकड़ने का काम कर रही है ऑंख । ऑंख वस्तु के पास गया ही नहीं, वस्तु ऑंख में आया ही नहीं फिर ऑंख ने पकड़ा किसको ? रूप को । वह रूप क्या है ? प्रकाश है प्रकाश । अब जिस आकृति में टकराने के बाद रिफलेक्ट होकर हमारे आंख में आ रही है, हम उस वस्तु के उस आकृति को मान लिये कि यह अमुक वस्तु है । हम मान लिये कि यह फलाँ हैं । अन्त में यह कहना शुरू कर दिये कि अरे वाह ! यदि इस सिध्दान्त को स्वीकार कर लिया जावे तो पूरे दुनिया में हलचल मच जायेगा । सारा साइन्स ही उलट-पुलट जायेगा । सारे दुनिया में हलचल मच जायेगा । सारा का सारा साइन्स ही उलट-पुलट जायेगा । हम कहे बस ! लग रहा है कि हेड के पद पर आप जरूर हैं लेकिन मति-गति हेड के पोजीशन के अनुकूल नहीं है । आपकी पोजीशन हेड के नहीं है । क्यों ? एक यूनिवर्सिटी का हेड होना विभाग का एक बहुत बड़ी हस्ती होता है । यदि किसी यूनिवर्सिटी का हेड अपने विभाग का कोई लेख उस सोसाइटी को भेजे, ब्रिटेन में जो दुनिया का सबसे बड़ा सोसाइटी है जो यह तय करती है कि विश्व स्तरीय किस चीज को मान्यता दी जानी चाहिये तो झट से वह फेल नहीं करेगा, उसको वह गौर से देखेगा । आप उस पद पर हैं । आप के एक लेख की विश्व स्तरीय गरिमा है । तब भी किस आधार पर बोलते हैं कि साइन्स उलट-पुलट जायेगा । दुनिया में हलचल मच जायेगा । क्यों विज्ञान ने अपना दरवाजा बन्द कर रखा है ? विज्ञान की मान्यता में चाहे जितना बड़ा हलचल हो, चाहे जितना बड़ा परिवर्तन हो, सत्य सत्य है तो उसको स्वीकार करना है। कोई सिध्दान्त यदि सत्यता लिये हुये है तो उसे स्वीकार करना है ।  चाहे जो भी खर्च हो, चाहे जो भी उथल-पुथल हो, चाहे जो भी हलचल या परिवर्तन हो, इसकी परवाह किये बगैर सिध्दान्त के सच्चाई को स्वीकार करना है । क्यों विज्ञान की मान्यता यह नहीं है ? देखिये ऐसा ही है । देखा जाये यह ऐसा ही है । फिर भी क्यों इसको स्वीकार नहीं करेंगे कि यह साइन्स में हलचल मचाएगा, दुनिया में साइन्स के सिध्दान्त उलट-पुलट हो जायेंगे । यह शोभा देता है आपके मुँह से ? हम तो चाहेंगे कि यदि आपको ऐसा लग रहा है तो एक आप लेख लिखिये । बोलिये परमप्रभु  परमेश्वर की ऽ जय !
आखिर स्वाभाविक रूप से आप लोग भी सोचिये कि हमारी ऑंख क्या ले रही है? रूप ले रही है । वह रिफलेक्ट हो करके प्रकाश से आ रहा है और प्रकाश को ऑंख पकड़ रही है। ऑंख जो प्रकाश को पकड़ और प्रकाश को देख रही है, केवल प्रकाश को मान ले रही है कि हाँ प्रकाश रिफलेक्ट होकर आ रही है और आप फलाँ व्यक्ति हैं, आप अमुक आकृति हैं लेकिन पकड़ में जब भी आयेगा तो प्रकाश ही आयेगा। पकड़ में प्रकाश ही आता है । शक्ति आती है और प्रकाश शक्ति का रूप है। तो इस प्रकार से जो है आखिर रूप ही देखना है । इन सबों को परिभाषा भी दिये कि प्रकाश शक्ति का रूप है लेकिन यह कहना कि हमको प्रकाश दिखाई नहीं देता है-- जब वह रूप है, प्रकाश शक्ति का रूप है तो शक्ति तो देखते ही हैंप्रकाश देखे (यानी) शक्ति देखे । अब रही चीज यह कि हम उसको पकड़ पा रहे हैं कि नहीं? सवाल यहाँ पर है ।
अब इस क्रम में हम लोग आगे आवें । इन पंच भौतिक पदार्थ तत्त्वों की उत्पत्ति शक्ति से होती है ।  क्रमश: शक्ति से आकाश-- शक्ति और आकाश से वायु-- शक्ति, आकाश और वायु से अग्नि-- शक्ति, आकाश, वायु और अग्नि से जल-- शक्ति, आकाश, वायु, अग्नि और जल से थल । एक बात यहाँ गौर करियेगा कि कहने वाले कहते हैं कि विज्ञान ने तो एक सौ छ: या एक सौ सात या एक सौ आठ पदार्थ तत्त्वों को घोषित कर दिया है--या खोज लिया है । आपके धर्म में तो पाँच ही पदार्थ तत्त्व हैं । तो घबड़ाइये मत ! उनके एक सौ आठ कहने में घबड़ाइये मत ! उनसे कहिये कि जरा सोचिएगा, जरा तलाश लीजिये भइया कि जो तेरा एक सौ आठ है, वह सब तीन  में ही है-- थल, जल और वायु । अभी विज्ञान ने अग्नि और आकाश तत्त्व को तो जाना ही नहीं कि ये क्या हैं ? अग्नि और आकाश को तो जाना ही नहीं कि ये क्या हैं ? इससे भी सम्बन्धित कोई सूत्र हैं विज्ञान में ? नहीं है । क्योंकि विज्ञान ने अग्नि और आकाश तत्त्व को अभी तक जाना ही नहीं ।
------------ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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