पाप-कुकर्म और भोग-व्यसन वाले परमेश्वर के यहाँ नहीं ठहर सकते !


प्रेम से बोलिये-- परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽ जय ! यह ब्रम्हाण्ड जड़-चेतन मात्र दो इकाईयों से युक्त है । तीसरी इकाई तो परमधाम में बैठ करके संचालन करती है । वह सदा यहाँ नहीं रहती, वह तीसरी इकाई परमधाम-अमरलोक या पैराडाइज या बिहिश्त या सुप्रीम एबोड में वहाँ स्थाई रूप से रहती है ।  वही जब भू-मण्डल पर आती है युग-युग में, तब उसी को 'अवतार' कहते हैं । आकरके जब वह किसी शरीर को धारण करती है तो उसको अवतार कहते हैं । और उसमें परमेश्वर की सारी क्षमता-शक्ति जो कुछ भी परमेश्वर की क्षमता-शक्ति होती है वह सारी का सारी क्षमता-शक्ति उनमें होती है । सारा जो पूर्णत्तव परमेश्वर होता है, वह उसमें होता है । उसी में वह क्षमता-शक्ति है विराट दिखाने की । क्योंकि वह स्वयं में विराट है । सारे लोग-- आप सभी स्वराट हैं । ये सारे लोग स्वराट हैं, परमेश्वर विराट है । 'स्व' माने जीव, स्वराट माने 'स्व' की शरीर। स्वराट माने 'स्व' की शरीर यानी जीव की शरीर और विराट माने उस परमब्रम्ह-परमेश्वर वाली शरीर । वह परमब्रम्ह-परमात्मा- खुदा-गॉड-भगवान्-अल्लाहतआला ही विराट है। सब स्वराट हैं, वह परमेश्वर विराट है । आप अपने शरीर और शरीरजन के जो जन हैं स्वजन, स्व और स्वजन के लिये यदि कोई कार्य करेंगे तो स्वार्थ की परिभाषा में आ जायेंगे जो निन्दनीय है । धर्म के अन्तर्गत निन्दनीय है, धर्म के अन्तर्गत घृणित है । स्वार्थ सर्वथा धर्म के अन्तर्गत त्याज्य है । क्या कर्म में स्वार्थ त्याज्य नहीं है ? धर्म में भी स्वार्थ त्याज्य है । स्वार्थ सर्वथा त्याज्य है और उसी स्वार्थ में आप सभी अपना जीवन जी रहे हैं । जो स्वार्थ त्याज्य है, निन्दनीय है-- उसी में आप सब जीवन जी रहे हैं । बन्दनीय क्या है ? परमार्थ ! 'परम' के लिये कार्य करना । 'स्व' और 'स्वजन' के लिये कार्य करना -- स्वार्थ  और 'परम' के लिये कार्य करना -- परमार्थ । जब 'परम' शब्द आवे तो उसका अर्थ होता है परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह -परमशान्ति-परम आनन्द यानी परम परम परम ! हर प्रकार से परम ! क्या कहा -- 'अक्षरं ब्रम्ह परमं' यानी अविनाशी परम । उसके लिये जब हम अपने जीवन को सौंप करके उसके लिये जब कार्य करना शुरू करेंगे तो क्या होगा ? परमार्थ कहलायेगा परमार्थ ! और परमार्थ सर्वथा और सर्वदा बन्दनीय होता है ।
मानव योनि पाये हैं । यह परमेश्वर वाली योनि है । इसलिये अनमोल रतन है । यदि आपने इसके आने वाले वंशजों के लिये बन्दनीयता में ढाल कर नहीं छोड़े तो इसका लाभ ही आप को क्या मिला ? आने वाले वंशजों के लिये, आने वाली पीढ़ियों के लिये यदि आप लोगों ने इस जीवन को बन्दनीयता में नहीं छोड़ा कि आपकी वह बन्दना करे, आपको वह नमन करे -- यानी  यदि आपने कुछ ऐसा हासिल नहीं किया जिससे कि बन्दनीयता आप सबको मिले तो आपने इस जीवन से क्या हासिल किया ? इस अनमोल रतन से क्या हासिल किया ? कुछ नहीं  किया ! पौत्र के पौत्र आते-आते आपका नाम व निशान मिट जायेगा । आपके अपने दादा के दादा का नाम व निशान नहीं रह गया है । आपके भी पौत्र का पौत्र जब तक आयेगा तब तक पता चलेगा कि आपका कोई नाम-निशान नहीं । विनाश कोई और चीज है क्या ? यानी आपके दादा के दादा का नाम-व-निशान नही जिसके आप पौत्र के पौत्र हैं तो आपका भी जब पौत्र का पौत्र आयेगा तब तक आपका भी नाम-व-निशान नहीं रहेगा । क्या विनाश कोई और चीज का नाम है ? हम तो जानने को भी तैयार है। हम केवल जनाने ही नहीं आये हैं, यदि कोई जनाने वाला मिल जाये तो जानने को भी तैया हैं । माइक और कुर्सी देने का मतलब है कि केवल हम जनाना ही नहीं चाहते, जानने को भी तैयार हैं यदि कोई जनाना चाहे तो । हम उस अहंकार के पुतले के रूप में नहीं चल रहे हैं कि नहीं-नहीं मेरा ही मानो -- मैं जो कहता हूँ, वही मानो । मैं सुनूँगा नहीं, मैं सर्वश्रेष्ठ जानकार हूँ-- ऐसा नहीं है । मैं आपका सुनूँगा जैसे आपको सुना रहा हूँ । आपके पास यदि 'सत्य' का ज्ञान है, आपके पास यदि जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर का ज्ञान है तो आप जनाइये-- मैं सुनूँगा भी। और यदि आप जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर को जानते-देखते नहीं हैं तो यह मन्च जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर के दर्शन का है । साइड की बातें  ला ला करके और इस दर्शन वाले कक्षा को बाधित करना थोड़ा शोभा नहीं देता है । एक सीमित अवधि (पीरियड) है, एक सीमित समय है । इस सीमित समय के अन्तर्गत सम्पूर्णत्तव का ज्ञान देना है । क्या कहा था श्रीकृष्णजी ने ? 'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: हे अर्जुन ! तुझे इस ज्ञान को विज्ञान सहित ऐसा कहूँगा, ऐसा बतलाऊँगा कि जिसके जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जायेगा । कुछ भी जानना शेष नहीं रह जायेगा । हम यहाँ आपको उसी ज्ञान को देने आये हैं । उसी ज्ञान को देने आये हैं । जानने के बाद आप देखियेगा कि अपने लिये कुछ जानना शेष
रह गया क्या ? लगेगा कि कुछ नहीं रह गया । देखियेगा कि  कुछ पाना शेष रह गया क्या ? लगेगा कि कुछ नहीं रह गया । जो जानना था सब जान लिया और जो पाना था सब पा लिया । अब सवाल है आगे की जिन्दगी का । जो पाये हैं वह बरकरार बना रह जाये शरीर छोड़ने तक । ज्ञान में जो कुछ भी मिलता है वह शरीर छोड़ने के समय तक बना रहे -- इसी के लिये समर्पण-शरणागति है । इसी के लिये समर्पित-शरणागत भक्ति-सेवा है क्योंकि ज्ञान पाने के बाद नि:सन्देह आपको दिखलाई देगा कि हमको कुछ भी इस ब्रम्हाण्ड में जानना और कुछ भी पाना शेष नहीं रह गया । वहाँ केवल जानने को लिखे हैं, हम इसमें जोड़ दे रहे हैं पाने को भी । कुछ भी जानना और कुछ भी पाना शेष नहीं रह जायेगा । फिर तो जीवन की क्या गति ? अगले जीवन का क्या होगा ? अब यह उपाय होना चाहिये कि यह जो मिला है बिछुड़ न सके । यह जो मिला है बिछुड़ न सके । यदि आपको ऐसी चीज मिल जाये जिसके मिलने के बाद इस ब्रम्हाण्ड में न कुछ जानना शेष रह जाये और न कुछ पाना शेष रह जाये तो क्या ऐसे अनमोल रतन की रक्षा-व्यवस्था नहीं होना चाहिये कि हमसे कहीं यह बिछुड़ न जाये । कहीं पुन: छूट न जाये । हम पुन: इससे बंचित न हो जायें । ऐसा होना चाहिये कि नहीं? होना ही चाहिये। आप बन्धुजन कुछ करेंगे ? ऐसा होना चाहिये कि नहीं होना चाहिये? यदि ऐसा होना चाहिये तो इसी के लिये ही तो समर्पित-शरणागत भक्ति-सेवा है । इसी के लिये तो शरणागत भक्ति-सेवा है ताकि जो मिल रहा है, जिसको आप देख रहे हैं कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, ये साक्षात् परमब्रम्ह-परमेश्वर हैं -- यदि हम इनके शरण में बने रहे तो इस समय जो मुक्ति-अमरता हमको दिखलाई दे रहा है, वह मुक्ति-अमरता हमारे लिये सदा-सर्वदा बना रहेगा ।
भगवान् तो प्रेम का भूखा होता है । प्रेम के सामने अपने अस्तित्व को भी बेंच देता है ।  अपने संकल्प को तोड़ देता है । 'प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा, अपना मान टले तो टले पर भक्त का मान न टलते देखा ।' भीष्म जी की मर्यादा रखने के लिये कृष्णजी ने अपने संकल्प को तोड़ करके अर्जुन के रक्षा में उनके रथ का चक्का हाथ में ले लिया । जैसे रथ का चक्का हाथ में लेकरके सामने बीच में खड़े हुये, भीष्म को ज्ञान तो नहीं था पर आभाष तो था ही --अब भीष्म क्या करें ? धनुष-बाण फेंक करके हाथ जोड़ करके प्रार्थना करने लगे । प्रभु हमारा काम पूरा हो गया । हमको आपसे क्या युध्द करना है! आपका व्रत टूटा, आप शस्त्र ले करके मेरे सामने खड़े हुये। क्या अभी जीत-हार बाकी ही रह गया ? हमारी जीत अभी क्या बाकी ही रह गयी ? तो अपने मान को भी मिटा करके उन्होंने भीष्म को सम्मान दिया अपने भक्त अर्जुन की रक्षा में । अभिमन्यु तो उनके भगिना ही थे और उनके शिष्य भी थे । अभिमन्यु की रक्षा के लिये क्या किया उन्होंने ? कुछ नहीं किया । क्यों नहीं किया ? अभिमन्यु में अपने पुरुषार्थ का गुमान था । कृष्णजी को वही गुरु, कृष्णजी को वही मामा-- बस इतना ही समझ करके पड़ा रहा । अपने को शरणागत नहीं किया । तो क्या हुआ ? जवानी भी नहीं देख सका । और वहीं अपने जीवन की बागडोर अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्णजी को दे दिया । तो क्या हुआ ? अर्जुन से बढ़कर एक से एक रणबांकुरे थे । भीष्म जी कहिये, द्रोणजी कहिये । अरे कर्ण के सामने अर्जुन कुछ नहीं थे । स्वयं कर्ण के सामने अर्जुन कुछ नहीं थे । लेकिन कृष्णजी ने सबको मरवा-कटवा कर अर्जुन को धनुर्धर का टाइटिल दिलवाया । धुनर्धर भीष्म नहीं कहलाये । धनुर्धर द्रोणाचार्य नहीं कहलाये । धनुर्धर कर्ण नहीं कहलाये । धनुर्धर की टाइटिल मिली अर्जुन को ।
क्या कहा श्रीकृष्णजी ने ?
'प्रेम का भूखा हूँ मैं और प्रेम ही एक सार है,
प्रेम से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है ।
प्रेम बिन मिष्ठान दे तो भी उसे लेता नहीं,
और प्रेम से एक फूल दे तो भी मुझे स्वीकार है ।
क्यों ?
क्योंकि प्रेम का भूखा हूँ मैं और प्रेम ही एक सार है ।
प्रेम कोई देता नहीं तो भी मुझे परवाह नहीं,
क्यों भाई ?
अरे भाई प्रेम देने वालों का भरपूर मुझपर भार है ।
प्रेम का भूखा हूँ मैं और प्रेम ही एक सार है,
प्रेम से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है ।
अब रही चीज ये कि भगवान् ने इस सृष्टि को बनाया, सृष्टि की रचना किया और वही कह रहा है कि उधर मत जा ! असत्य क्षेत्र में मत जा ! ममता-मोह-आसक्ति में मत जा ! मृत्यु क्षेत्र में मत जा ! सत्य-क्षेत्र में रह! धर्म-क्षेत्र में रह ! भगवान् के क्षेत्र में रह ! सब समझाने के बावजूद, ज्ञान देने के बाद -- तब भी ? चूंकि दुष्कृति में तो सब जुड़े हुये थे, भोग-व्यसन घर-परिवार बीवी-बच्चा आदि में जुड़े हुये थे । क्या कहना पड़ा ? 'हे अर्जुन!  ये मूढ हैं सब । ये नरों में अधम हैं सब । ये दुष्कर्मी दुष्कृत से युक्त हैं सब। इसलिये मेरी शरण में नहीं हो रहे हैं ।' 'न  मां  दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधामा:।' (गीता 7/15) ये नरों में अधम हैं सब, नीच हैं सब, ये दुष्कृत्ति में सटे हुये हैं सब, मूढ हैं सब । इसीलिये इनको मेरी शरणागति अच्छी नहीं लगती । प्रश्न उठता है कि क्या ज्ञानी भी गिर जाता है ? ज्ञान पाने वाला ज्ञानी भी गिर जाता है? देखिये न ! ये तो कृष्णजी साक्षात् प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं । ऐसे ज्ञानी के ज्ञान का क्या होता है ? ज्ञानी का ज्ञान क्या हो जाता है ? तो अगली पंक्ति में कह रहे हैं कि 'माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता :' माया क्या करती है ? ज्ञान पाने के बाद-- भगवत् प्राप्ति के बाद जैसे ही जीव माया-क्षेत्र में जाता है तो सबसे पहले उसके ज्ञान को माया छीन लेती है, यानी सीज कर लेती है और परमप्रभु को वापस कर देती है । उसके बाद अपना काम शुरू करती है । चल-चल तुम असुर-राक्षस कहीं के ! तुम भोगी-व्यसनी कहीं के ! परमेश्वर को अपमानित किया भोग-व्यसन के चलते ? चल-चल तू आसुरी भाव में ही रह ! इस प्रकार कामिनी-कांचन रूपी असुरता के भाव में डाल देती है । फिर असुरता की जो गति होती है, उस गति में जाओ ।
भगवान् इसलिये नहीं होता है कि हमको मनमाना छूट दे दे कुकर्म करने के लिये । भगवान् के यहाँ कौन नहीं ठहर सकता ? पापी-कुकर्मी भगवान् के यहाँ नहीं ठहर सकता। भगवान् के यहाँ नहीं ठहरने का अर्थ ही कि वह पापी-कुकर्मी है, भोगी-व्यसनी है । शेष वह कौन सी चीज है जो भगवान् अपने भक्तों को नहीं देता ? पाप-कुकर्म को छोड़ करके, भोग-व्यसन को छोड़ करके ऐसी कौन सी चीज है ब्रम्हाण्ड में जो भगवान् अपने भक्त-सेवकों को नहीं देता ? हाँ, पाप-कुकर्म नहीं करने देगा । भोग-व्यसन में नहीं रहने देगा । और इसी पाप-कुकर्म के लिये भाग-भागकर जाते हैं लोग । भगवान् का भी भय नहीं है इन लोगों में । इतने असुर हैं ये । रामजी के सामने ऐसा ही हुआ । कृष्णजी के सामने ऐसा ही हुआ ।
देखिये कितने तकलीफ के बाद कृष्णजी को कहना पड़ा होगा !
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (गीता 9/11)
क्या कहा कृष्णजी ने ? कि मैं जो सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का परमेश्वर हूँ, अब मनुष्य की शरीर को धारण करके आया हूँ । मुझे तो ये मूढजन जानते नहीं -- 'अवजानन्ति मां मूढा' -- और मेरे परमभाव को जानने की कोशिश नहीं करते-- 'परम् भावमजानन्तो' क्योंकि सब आत्मा मिला रहे हैं तो मैं परमात्मा मिला रहा हूँ, सब ईश्वर वाले हैं तो मैं परमेश्वर वाला हूँ, सब ब्रम्ह वाले हैं तो मैं परमब्रम्ह वाला हूँ । सब गति और मति वाले हैं तो मैं परमगति और परममति वाला हूँ । सब शान्ति-आनन्द वाले हैं तो मैं परमशान्ति और परमानन्द वाला हूँ । इसलिये मेरे परमभाव को तो ये मूढजन जानने की कोशिश नहीं करते । मेरे परमभाव को ये पकड़ने की कोशिश नहीं करते और 'तनुमाश्रितम्' मनुष्य शरीर में आने के नाते मुझे ये एक साधारण मनुष्य समझते हैं । यदि साधारण मनुष्य नहीं समझते तो भाग-भागकरके भोग-व्यसन में -- पतन और विनाश में -- बीवी-बच्चा में जाते ही क्यों जिससे निकलने के लिये मानव योनि मिली है, जिससे निकलने के लिये 'ज्ञान' दिया गया है और ठहरने के लिये भगवत् शरणागति मिली है । तो सवाल है कि जिसकी सृष्टि है वही कह रहा है कि-- देखिये रामजी तो भगवान् जी के अवतार ही थे जिनकी सृष्टि है, वह क्या कह रहे हैं ?
यहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दु:खदाई ॥
ऐ मेरे प्रजाजनों ! ऐ मेरे भाईजनों ! मानव शरीर का, मानव योनि का फल जो है वह विषय-भोग नहीं है । यदि आप स्वर्ग भी पा जायें तो भी वह अमरता के सामने स्वल्प है। 'स्वर्गउ स्वल्प' स्वर्ग की प्राप्ति भी अमरता के सामने नाचीज है नाचीज । क्यों ? क्योंकि 'अन्त दु:खदाई' । स्वर्ग का अन्त दु:खदाई है । पुण्य है तो स्वर्ग है-- पुण्य के क्षीण होने पर वहाँ से भी ढकेल दिये जायेंगे ।
नर तनु पाई विषय मन देही । पलटि सुधा ते सठ विष लेही ॥
अरे मानव तन तेरे को मिली है और तब भी विषय-भोग में ही जुड़ा है? रामजी अपने प्रजाजनों से कह रहे हैं कि तेरे को नर-तन मिला और तब भी तू विषय भोग में ही जुड़ा है ? तू पारिवारिक रूप में ही रह रहा है? रे तू तो बड़ा ही मूर्ख है अमृत छोड़ करके जहर ले रहा है । 'पलटि सुधा ते सठ विष लेही'। अरे बड़ा मूर्ख है तू सब ! मानव तन पाकरके भी अभी विषय-भोग में ही जुड़ा है ! अभी घर-परिवार में ही तू बैठा है ! तू तो बड़ा मूढ है जी ! अमृत छोड़ करके विष ले रहा है ।
ताहि कबहु भल कहहि न कोई । गुंजा ग्रसइ परस मनि खोई ॥
ऐसे लोगों को कौन भला कह सकता है ? कौन अच्छा कह सकता हैजब धन ही बटोरना है और पारस मणि मिल रहा हो जो लोहा को सोना बना देता है तो उस पारस मणि को छोड़ दे रहे हो और गुंजा फल जो लाल काला हो वह ग्रहण कर रहे हो तो तेरे को कौन भला कह सकता है ? भगवान् को छोड़ करके भोग-व्यसन को ग्रहण कर रहे हो -- तो तुझे कौन भला कह सकता है ? अमरत्व के क्षेत्र को छोड़ करके मृत्यु क्षेत्र में रह रहे हो -- तो तुझे कौन भला कह सकता ?
   ऐसे भोग के तरफ रुख रखने वाले लोगों की क्या गति होती है, जीव तो मरता नहीं बल्कि शरीर छोड़ का जाया करता है। --
आकर चारि लच्छ चौरासी । जोनि फिरत यह जीव अविनाशी ॥
   चौरासी लाख योनियों में जन्मता-मरता असह्य दु:ख-पीड़ा का भागी बनता हुआ चक्कर लगाता रहता है । इस क्रम से आगे बढ़ते हुए  अविनाशी जीव चौरासी लाख योनियों में चक्कर काटने लगता है ।
     फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
माया की प्रेरणा से जीव चौरासी लाख का चक्कर लगाता रहता है जिसमें जीव,पर काल और कर्म का स्वभावत:घेरा बना रहता है असह्य-पीड़ा-यातनाओं से युक्त जीव को चक्कर लगाते हुए जब परमप्रभु देखते है पूरा होता है, तब,
     कबहुँक करि करुना नर देही ।
     देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
   ऐसे ही यातनाओं से गुजरते हुये जब चौरासी लाख योनियों से जीव गुजरता रहता है, तब भगवान् को दया आती है। वह परमप्रभु परमेश्वर जो है -- जीव को अपना उध्दार करने के लिये --मोक्ष पाने के लिये--इन तड़पने वाली  जिन्दगी  से  अपने को बचाने के लिये परमप्रभु फिर कृपा करके मानव शरीर देता है --मोक्ष प्राप्त करने के लिये -उध्दार पाने के लिए।
मानव योनि दिया किसलिए  ? भोग के लिये नहीं! फिर किसलिये ?
     नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो ।
     सन्मुख मरुत अनुग्रह  मेरो   ॥
   इसलिये नहीं कि आप इस मनुष्य शरीर को भोग के तरफ घर-परिवार के तरफ फिर से लगा देवें । इसलिए दिया कि आप अपने को सद्गुरु-भगवान् से जोड़ करके परमेश्वरमय होते हुये अपने को मोक्ष के तरफ ले चलें। यह 'ज्ञान' इसलिये नहीं दिया जाता है कि आप पुन: विषयों के तरफ --स्त्री-पुरुष, बेटी-बेटा, घर-परिवार के तरफ मुड़ें बल्कि यह 'ज्ञान' इसलिये दिया जाता है कि आप परमेश्वरमय बने रहें। सद्गुरु और भगवान् से जुड़े और सद्गुरु और भगवन्मय बने रहें और मोक्ष को प्राप्त हों।
   आपके सभी अपराधों-पापों को ज्ञान काटकर क्षमा कर देता है लेकिन सद्गुरु और भगवान् के 'बचन' को काट करके  जो पाप बटोरेंगे, उसका काट कौन करेगा ? जरा सोचिये तो सही!
   इस प्रकार से श्रीरामचन्द्र  जी महाराज कह रहे हैं कि यह नर तन इसलिए मिला है कि इसे जहाज समझें जहाज। इसे भोग भोगने वाला साधन न समझें । भोग भोगने वाला शरीर मानने के लिये यह मनुष्य शरीर नहीं मिली है । यह नर तन मिली है जीव को भव सागर पार करने के लिये । यह भगवत् कृपा है भगवत् कृपा।
   पहली कृपा है कि मानव योनि मिल गई । दूसरी भगवत् कृपा कि मानव योनि में ऐसी धारणा, ऐसी वृत्ति और ऐसी उत्प्रेरणा मिल गयी कि भगवत् प्राप्ति हो । यह इसलिये मिली है कि भवसागर पार करें । इसको नाव समझें, जहाज समझें, भोग की सामग्री नहीं। इस तन रूपी जहाज का खेवनिहार-मल्लाह-केवट सद्गुरु को सपर्पित  कर दो। जब आप अपने  तन रूपी नौका का खेवनिहार- मल्लाह सद्गुरु  को समर्पित कर दोगो तो सद्गुरु आपको भोग के तरफ नहीं ले जायेगा। सद्गुरु आपको संसार में चौरासी लाख योनियों में नहीं जाने देगा। वह क्या करेगा कि --
 करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा । दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥
  जो भव सागर जीव के लिए पार  करने में दुर्लभ था वह (सद्गुरु) उसे आसानी से पार करा देगा । इस भव सागर से पार कराके आपको आसानी से मोक्ष को प्राप्त करा देगा । इसलिये मनुष्य की शरीर भोग की वस्तु न हो करके स्त्री-पुरुष, बेटी-बेटा को देने के लिए नहीं, बल्कि सद्गुरु को दे करके मोक्ष प्राप्त करने के लिये है । बीबी-बच्चा-नौकरी को देने के लिये नहीं है । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की  ऽऽऽ जय !
   ये श्रीराम जी के उपदेश हैं । ये उपदेश आपको इसलिये नहीं सुनाये जा रहे हैं कि आप सुनकर 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा' कहकर घर चले जाइये। बल्कि इसलिये दिये जा रहे हैं कि यदि आप अपना कदम इस उपदेश के अनुसार बढ़ाना चाहें तो वर्तमान में भी वही लाभ मिलेगा जो श्रीराम जी के समय में श्रीराम जी के  द्वारा मिल रहा था । इतना समझाने के बावजूद भी यदि आप अपने तरने का उपाय नहीं करेंगे - मोक्ष पाने का प्रयास नहीं करेंगे तो श्रीराम जी ने घनघोर श्राप दिया है,समझने का प्रयास करें--
     जो न तरै भवसागर, नर समाज अस पाइ ।   
 जो ऐसा नर तन पाकर, ऐसी प्रेरणा पाकर, ऐसा सद्गुरु पाकर  अपने तरने का उपाय नहीं कर लेता तो
     सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥
   वह आत्महत्या (जो इस सृष्टि का घोरतम् पाप है) करने का घोर पाप का अपराध उस पर लागू होता है । वह मन्दमति-निन्दा का पात्र असह्य पीड़ा प्रताड़नाओं वाला तो होता ही होता है । चौरासी का चक्कर भी लगाता रहता है
     जौ परलोक इहाँ सुख चहहू ।
     सुनि मम बचन हृदय दृढ़ गहहू ॥
  यदि आप लोक और परलोक दोनों में आनन्द, जीव को मोक्ष और जीवन को यशकीर्ति चाहते हैं तो मेरे बचनों को सुनिये अपने हृदय में धारण कीजिये और दृढ़तापूर्वक इन बचनों पर चलिये । यह श्रीराम जी ने अपने प्रजाजनों   को उपदेश करके अपने भगवत्तत्तवम् के होने-रहने का एक प्रमाण पेश किया है। श्रीराम चन्द्र जी राजा नहीं थे, वे नहर बनवाने, सड़क बनवाने, विकास करने का उपदेश नहीं दे रहे हैं --मोक्ष का उपदेश दे रहे हैं । मोक्ष केवल भगवान् को देने का  अधिाकार होता है । यह उपदेश एकमात्र केवल भगवदवतार ही दे सकता है ।
जब जीवन जीना ही है-- कहीं न कहीं जीवन जीना ही है तो माया के क्षेत्र में क्यों जियेंगे ? माया क्षेत्र में जब जीवन करेंगे तो माया के पास देने के लिये क्या है -- कामनायें । कामनाओं को आपके जहन में भर देगी माया । अब उन कामनाओं की पूर्ति के लिये अपने जीवन को बेचिये । नौकरी कीजिये, बिजनेस कीजिये, झूठ बोलिये, छल-कपट कीजिये । क्या है भाई ? अरे इस पापी पेट का सवाल है ! यह पेट पापी हो गया ? यह भण्डार है-- स्टोर है इस गाड़ी का और इसी को पापी कह दिया ? अरे पापी तो तू है । पेट को क्यों पापी कह रहा है ? पाप-क्षेत्र में रह रहा है तू, ऐसे क्षेत्र में रह रहा है जहाँ कामना के सिवाय कुछ है ही नहीं । कामनायें माया ने भर दी और नचाती रही चौरासी लाख योनियों में । माया इच्छा देगी, व्यवस्था नहीं देगी । इच्छाओं की पूर्ति के लिये -- भोग के लिये आप स्वयं व्यवस्था कीजिये । लेकिन जिसने भगवान् के क्षेत्र में अपने को कर दिया तो भगवान् का क्या लक्षण है ? भगवान् का लक्षण है सबको सच्चिदानन्दमय बनाना । भगवान् का लक्षण है कि सबको सदा-सर्वदा के लिये अमरत्व प्रदान करना। सदा-सर्वदा के लिये एक समान सच्चिदानन्दमय बना देना ।
जैसे ही आप अपने को धर्म क्षेत्र में करेंगे तो आपको अपने जीवन की मंजिल जो मोक्ष है वह दिखलाई देगी कि वह तो सुरक्षित और सुनिश्चित है। अब बीच के जीवन का क्या होगा ? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में रह गया अर्थ और काम । काम को पीछे ढकेल दिया परमेश्वर ने और आगे कर दिया अर्थ को -- यानी भरा-पूरा जीवन । कामना की आवश्यकता ही नहीं । व्यवस्था में अर्थ पहले कर दिया कि लो अब पूरा भरा-पूरा बने रहो । यह सोचने का मौका ही न रहे कि हमारी रोटी कहाँ से आयेगी, हमारा वस्त्र कहाँ से आयेगा। हमारी व्यवस्थायें कहाँ से आयेंगी और हमारे खान-पान हमारे रहन-सहन कहाँ से आयेंगे । हमको साधन-सुविधायें कहाँ से मिलेगी-- ये सारी बातें ही खतम हो गयीं क्योंकि अर्थ पहले काम पीछे । कोई कामना आ भी गयी तो जहाँ अर्थ पहले से पड़ा हुआ है तो वहाँ काम क्या करेगा ? क्या बिगाड़ लेगा ? तो इस तरह परमेश्वर के यहाँ केवल मोक्ष ही नहीं है । जीव को मोक्ष, जीवन को यश-कीर्ति । ये रोटी-कपड़ा-मकान साधन और सम्मान पीछे-पीछे रहती है फिरती फिरती । कोई आश्रमवासी जो पच्चीसों वर्ष से रहने वाले हैं, एक बार यहाँ आकर कह सकता है कि एक दिन भी उसको रोटी-कपड़ा सोचने का मौका लगा हो ? बीसियों वर्ष में एक दिन भी रोटी-कपड़ा सोचने का मौका लगा हो? साधन और सम्मान सोचने का मौका लगा हो? अरे ! सोचना है तो अपनी मुक्ति सोच ! सोचना है तो यश-कीर्ति सोच ! सोचना है तो जीवों का उध्दार सोच ! सोचना है तो जन-कल्याण सोच ! रोटी-कपड़ा-मकान भी कोई सोचने की चीज है ? और सारे दुनिया वाले सारे गृहस्थ रोटी-कपड़ा और मकान, साधान और सम्मान से अलग हट करके और है ही क्या उनके पास सोचने के लिये ? सारे पाप-कुकर्म इसी के लिये तो कर रहे हैं ।
ऐसे परमेश्वर के शरणागति न हो और पाप-कुकर्म भोग-व्यसन के क्षेत्र में रहा जाये  तो परमेश्वर मंजूर कर लेगा? यानी यहाँ एक दिन भी किसी को चिन्तन करने का मौका मिला हो जिसके लिये जीवन ही बेंच रहे हैं लोग ? परमेश्वर का अपनत्व मुक्ति-अमरता देने वाला होता है । सारा जीवन खुशहाल रखने वाला होता है । सारा जीवन खुशहाल रखते हुये मुक्ति-अमरता पाना है। शान से खाना और शान से रहना । वह चीज जो होना चाहिये, वह सबकुछ करेगा परमेश्वर । वह चीज जो होना चाहिये वह सबकुछ देगा परमेश्वर । 
------------ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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