'अपने' को शरीर मान कर इस मायावी संसार में फँसना ही 'जीव' के पतन का कारण है ।


प्रेम से बोलिए -- परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽ जय ! एक तरफ तो शरीर आया है संसार से माता पिता के माध्यम से तो  दूसरी तरफ से जीव आया परमब्रम्ह से ब्रम्ह-शक्ति के माध्यम से, भगवान् से शिव-शक्ति के माध्यम से -- दोनों का संयुक्त रूप ही आदमी है, मनुष्य है। अब इसमें 'हम' कौन है ? 'हम' शरीर है या 'हम' जीव है ? यह यहाँ से बनेगा कि 'हम' शरीर है या 'हम 'जीव है ? जब भी इसकी जाँच करने चलेंगे, इसको जानने-समझने चलेंगे तो नि:संदेह यही मिलेगा कि 'हम' जीव हैं । 'हम' शरीर है--यह कौन कहेगा ? अज्ञानी कहेगा, नाजानकार कहेगा । जिसको जीवन के विषय में कुछ अता पता ही नहीं है । वह 'हम' को शरीर मान लेगा और मान करके इस मायावी माता-पिता, घर-परिवार, संसार में जकड़  जायेगा, फँस जायेगा । बरबाद होगा, विनाश को जाएगा । दुनिया का कोई ऐसी सद्ग्रन्थ नहीं है जो इस (शारीरिक) माता-पिता और संसार की घोर-घोर निन्दा न करता हो । इस घर-परिवार की, संसार की घोर-घोर निन्दा न करता हो ! एक भी सद्ग्रन्थ दुनिया का नहीं मिलेगा !
एक छोटी सी मशीन हम खरीदने जाते हैं तो उसका बुकलेट माँगते है नेम प्लेट माँगते है ताकि उसके आधार पर मशीन को हम चालित-संचालित और रख-रखाव कर  सके । क्या है ? कैसी है ? किस प्रकार की मशीन है? यह कैसे उपयुक्त या प्रयुक्त होगा ? यह कैसे चालित होगा ? यह हम पहले जानेंगे-समझेंगे ! यह मानव जीवन जो हमें मिला है, इसका भी कोई नेमप्लेट या बुकलेट होगा । इसका भी तो कोई लेखा-जोखा होगा ! वही तो सद्ग्रन्थ है । दुनिया के किसी भी पंथ-ग्रन्थ में देखेंगे तो ऐसा कही भी नहीं मिलेगा जो घर-परिवार-संसार की निन्दा, जिसमे घोर-घोर निन्दा न की गयी हो । क्योंकि ये क्योंकि ये जीव को फँसाने वाले हैं । जीव को बरबाद करने वाले हैं । जब हम जीव होंगे तो हमारे माता-पिता तो शिव-शक्ति, ब्रम्ह-शक्ति होगी और हमारा आश्रय जो मूल है, परम ब्रम्ह-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् होगा । यानी हमारा अपना निजी कौन है ? ब्रम्ह-शक्ति है, शिवशक्ति है और  परमब्रम्ह परमेश्वर है । दुनिया मे जहाँ कही भी देखेंगे -- जीव, जीवन और जीवन के उद्देश्य के विषय में हर किसी को ऐसा ही मिलेगा; हर पंथ-ग्रंथ में ऐसा ही मिलेगा । हर कोई-यह मान बैठा है कि हम तो माया जाल में फँसे हैं । हम तो माया जाल में गिरे पड़े है। हम तो भवकूप मे गिरे पड़े हैं । हम तो भव सागर में डूब रहे हैं । उतरा रहें हैं । क्या है वह मायाजाल ? परिवार ही तो है ! क्या है वह मायाजाल ? घर-परिवार नौकरी-चाकरी ही तो है ! इस प्रकार से किसी को भी यह जानने समझने की पूरी छूट है । यहाँ पर तो हर किसी के लिए छूट है । जानिये-समझिए देखिये-परखिए। हर प्रकार से सत्य ही होने पर स्वीकार करना है । हर प्रकार से सत्य ही होने पर स्वीकार करना है । सच्चाई तो हर किसी को स्वीकार करना ही चाहिए ।
अब रही चीज यह कि कुछ नये लोग भी ऐसे होते है कि जैसे ज्ञान पाए कि उफनाने लगे, छिछला-छिछलाने लगे । जैसे यहाँ लोग हैं --ज्ञान मिलेगा पर हम तो भगवान् के हइए हैं । हम तो अब का फँसेंगे  ? कहाँ का होगा ? हम तो हई हैं भगवान् के ! एक बात थोड़ा सा सोचने की है । जो अपना बेटा-बेटी घर-परिवार कहला रहा है, वे अपने बाप से छल करने के लिए आ रहा है । सम्पत्ति हरण करने के लिए, धोखा-धड़ी छल कपट कर रहा हैं । कहता है कि बस दो दिन के लिए चाहिए । उसके बाद चले आइएगा । आखिर इस एक-दो दिन का प्रयोजन क्या है ? छल करना, धोखा-धड़ी करना । सम्पत्ति को हरण कर लेना किसी तरह से उसका । धोखा धड़ी से बाप के सम्पत्ति को अपना लेना है।  यह बेटा कहला रहा हैइसलिये सम्पत्ति को छल से लेना चाहता है । क्या सद्गुरु कभी ऐसा कर सकता है ? सद्गुरु कभी किसी से सम्बन्ध धन के लिए नहीं करता है ।  जीव के लिए करता है। जीव के मोक्ष के लिए करता है । जीव को मुक्ति-अमरता दिलाने के लिए करता है । यह हर किसी को महसूस करना चाहिए ।
एक बात अपनी तो सोचिए। हमें  दो दिन जहाँ रहना है वहाँ के लिए कोई बात नहीं और दो दिन के लिए आया है धूर्तबाजी करने के लिए, छलवाजी करने के लिए। कहलाता है बेटा ! पुत्र आया है , वह  कह रहा है कि पिताजी एक दिन के चले चलिए। पूछा जाए क्यों ? क्या कराओगे ? तुमको हमसे मतलब नहीं है, हमारे धन-दौलत से मतलब है-- यही न बेटा है ? अपने को बेटा कहला रहा है कि किस-किस से छीन झपट लें ! यह उसका मंशा है कि एक दिन चलिए बस ! आप से साइन वगैरह, दस्तखत वगैरह करा लें । छीन-झपट लें ! फिर आकर आप आश्रम में रहिएगा ।
क्या कोई बतला सकता है कि महीनों-वर्षों से जो कोई यहाँ आश्रम में रहा है, उससे धन की बात हम किए होंगे ? कि खेत बेच कर ला दो, घर बेच कर ला दो, हमको दस रुपये चाहिए, वर्षों से रहने वाला कोई ऐसा कह सकता हैं ? कि एक बार भी उससे कहा गया हो कि हमको दस रुपये लाओ? जाओ घर-दुआर-मकान बेंच करके हमारे लिए लाओ।  कोई एक व्यक्ति भी कह सकता है ? ऐसा बार-बार जब हमारे ऊपर दबाब पड़ता है, बार-बार हमारे पर उसके द्वारा कहा जाता है कि हम समर्पित हैं, हम समर्पित हैं, ऐसे है कि उसको विलय कर लिया जाता । सुनते सुनते है, सुनते रहते हैं । जब देखते हैं कि वह बार-बार परेशान है, तब कहीं स्वीकारोक्ति देते हैं । सच्चाई भी ऐसी ही है कि हर किसी को ईमान से सच्चाई से देखा जाय तो जिसका शरीर उसकी सम्पदा भी । सारा धन-दौलत-सम्पदा सब भगवान् का है, सारी धरती, सारी सृष्टि भगवान् की ही है --कौन ऐसा है दुनिया में जो इसे नहीं मानने वाला है ? तो भगवान् से छल करके (भगवान् की सम्पदा को) हम घर-परिवार बेटा-बेटी को दे दें और आये भगवान् के यहाँ रहने-चलने के लिए ? भगवान् का होने के लिए ? वह धन जो पीछे है, वह घर-परिवार में बेटा-बेटी को दे आवें, बेटा-बेटी में बाँट आवें -- किस बेटा-बेटी को ? छली बेटा-बेटी को ! उस धूर्तबाज बेटा-बेटी को जो अपने बाप से छल करना चाहता है । जो अपने बाप के साथ धुर्तबाजी कर रहा है । बस एक दिन के लिए चले चलिए न! बस एक दिन के लिए चले चलिए ! आखिर उस एक दिन का क्या प्रयोजन है ?
एक प्रश्न अपने से उठाया जाये । जो भगवान्  का हो गयाउसके लिये कैसा बेटा-बेटी ? कैसा घर-परिवार जो भगवान् का हो गया है? जब आप प्रार्थना करते हैं --'त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।' जब वह आपका माता-पिता भाई बन्धु, सखा-गुरु, हित-नात सब देव ही है, तो उससे छल करके और जा करके अपनी चीज को (भगवान् की ही चीज को जो आप के पास धरोहर के रूप में है) बेटा-बेटी को दे देंगे तो क्या यह उस भगवान् के साथ छलावा नहीं होगा ? क्या आप के लिये (अपने जीव के  लिये) यानी जीवन के विषय में ये पाप नहीं हुआ ? ये दोष नहीं हुआ ? ये तो आप स्वयं सोचें।
हर तरफ से हमने किसी से सम्बन्ध रुपया-पैसे के लिए नहीं जोड़ा है । हमारा सीधा सम्बन्ध जीव से है । जीव होगा शरीर के माध्यम से । जीव ठहरेगा शरीर के माध्यम से । शरीर को स्थिरता मिलेगी समर्पण-शरणागत के माध्यम से । जब तक सर्मपण नहीं, शरणागत कैसे होगा ? मन तो बार-बार उधर जायेगा ही जायेगा । शैतान और माया प्रेरित करके उधर  ले ही जाएंगे । कभी चाहेगा कि वह भगवान् के शरण में रहे ? शैतान का यह अपना उद्देश्य लक्ष्य ही है कि भगवान् की शरण में रहने वाले को किसी तरह से भरमा-भटकाकर भगवान् से विमुख बनावें। यही तो एक मात्र शैतान का उद्देश्य है ।
सोचिए ! वह बेटा ही कहलायेगा जब बाप उस घर-परिवार के लिये पाप-कुकर्म करने में लगा था, जब बाप उनके माया-मोह जाल में था, तब तो वह बेटा-बेटा कहला रहा था । लेकिन जब बाप एक सत्य को जान-देख कर चल रहा है, जब बाप भगवान् को जान-देखकर चल रहा है और कह रहा है कि बेटा ! हमने भगवान् को पाया है। और तब ? तब बेटा उनके साथ (अपने बाप के साथ) छल कर रहा है । पा लिए तो  चलिये-चलिये ! चलिये लिख-पढ़ आइये । कहीं सन्त जी लिखवा न लें ! कहीं महाराज जी धान-सम्पदा लिखवा न लें। अरे ! शैतान कहीं के ! देखो तो सही कि ऐसा किसी के साथ सन्त जी ने किया है ? एक रिकार्ड-प्रमाण पच्चीस वर्ष के जीवन में कोई दे सकता है कि सन्त जी किसी के साथ लिखा-पढ़ी करके उसके साथ कराये हैं? एक कोई 25 वर्ष के जीवन में कह सकता है कि सन्त जी किसी से दस रुपये मागें हैं ? दस रुपये किसी के साथ लिये हो । तुम, बेटा बनते हो ? छल करते हो किस बाप के साथ! वो भी भगवत् शरणागत् बाप से। भगवत् मार्ग मे चलते हुए बाप को ! तुम अपना हित बनते हो ? सन्त जी तो किसी को दस पैसे के लिए भी घर नहीं भेजे होंगे कि जाओ दस पैसे ले आओ क्योंकि यहाँ रह रहे हो, यहाँ चाय-नमक आदि का खर्च है । घर में रहते हो तो दरिद्रता छायी रहती है । नाना तरह के पाप-कुकर्म, झूठ, चोरी-बेईमानी करने पर भी एक पाँच आदमी का परिवरिश नहीं हो रही है । पाप-कुकर्म-झूठ कुल करना पड़ रहा है । यहाँ रहने पर कभी रोटी- कपड़ा- मकान का चिंतन आया होगा उसके सामने? रोटी-कपड़ा-मकान, साधन और सम्मान लौकिक आवश्यकताओं का चिंतन कभी आया होगा ? एक कोई आश्रमवासी उतर करके बता दे तो सही। यहाँ चिंतन है तो भगवद् सेवा का, भक्ति का चिंतन है, यश कीर्ति का चिंतन है । भगवद् भक्ति-सेवा का चिंतन है तो यश-कीर्ति का चिंतन है। पहले तो चिंतन के लिए यहाँ कोई जगह ही नहीं है । यदि चिंतन है भी तो भक्ति-सेवा का, मुक्ति-अमरता का है।
तो आप लोग स्वयं सोचिये! हर कोई स्वयं सोचे कि आखिर 'हम' किसका है ? माता-पिता तो केवल शरीर मात्र हैं । शरीर से आगे परमेश्वर की तो जानकारी नहीं है । ईश्वर की भी जानकारी नहीं है । परमेश्वर, ईश्वर तो छोड़ दीजिए, जीव की भी जानकारी नहीं है । जीव का भी अता-पता उसको कुछ नहीं है । वह केवल शरीर ही है। शरीर ही भाई, शरीर ही बाप, शरीर ही पत्नी, शरीर ही पति, शरीर ही बहन-- सारे हित-नात-रिश्तेदार शरीर तक । शरीर के सारे सम्बन्ध शरीर तक । सारे सम्बन्ध स्वार्थ पूर्ति तक । जरा सोचिये, स्वार्थ मर जाय तो कौन है पूछने वाला है ? बेटा बाप को, बाप भाई को, चाहे पति पत्नी को -- एक दूसरे को कोई पूछने वाला नहीं है । चारो तरफ ऑंख फैलाकर देख लीजिये । एक पेट से पैदा हुआ दो व्यक्ति या तीन व्यक्ति जो हैं, भाई अपने में होने रहने वाले कोई भी है ? जब चार पैसा आने लगता है, तब बेईमानी जो है उसको तोड़-फोड़ करके किनारे कर देती है । जब चार पैसा कमाने लगता है तो बेईमानी, और क्या चीज है --बेईमानी है ? बेईमानी है, छल-कपट है स्वार्थ है । जो एक माँ के पेट से पैदा हुआ एक माँ के ऑंचल में पेशाब-पाखाना किया हुआ, एक माँ की गोद में पला हुआ और उसको अलग-विलग होने में कोई परेशानी नहीं है । स्वार्थी समाज ही है । झूठ-फरेब माया-जाल का समाज ही है । क्यों न टूट-फूट होगी ? क्यों नहीं छिटकाव-बिखराव होगा !
एक आप अपने को देख लो और एक हम लोगों को देखो कि लाखो खर्च करके, लाखो खर्च करके हर साल और कहाँ-कहाँ के बुला कर आओ-आओ तेरा यह असली घर है, यहाँ तेरी लौकिकता की पूर्ति तो है ही पारलौकिकता की पूर्ति भी है । यहाँ तेरे लिये रोटी-कपड़ा-मकान तो है ही, साधान-सम्मान तो है ही, तेरे लिये यश-कीर्ति और मुक्ति-अमरता भी है। जान-देख लें कि है कि नहीं !
यहाँ हम किसी की ऑंख में धूल झोंक करके कोई अपना कार्यक्रम नहीं चलाते। हमारे यहाँ तो ऑंख पर आँख पर ऑंख पर ऑंख दे करके सच्चाई की जाँच करायी जाती है । इन भौतिक ऑंखो के बाद सूक्ष्म दृष्टि दे कर सूक्ष्म जगत का और दिव्य दृष्टि दे कर दिव्य लोक, ब्रम्ह लोक का और अन्तत: ज्ञान दृष्टि दे कर परमधाम और अमरलोक का सम्पूर्ण ज्ञान देते हुए, दर्शन कराते हुए हर किसी को स्पष्टत: परख-पहचान की छूट दी जाती है । जान-देख लो तब अगला कदम रखो । हमारे यहाँ मान करके अंध भक्ति, अंध विश्वास में कदम बढ़ाने की कोई जगह नहीं है । हम पहले किसी अज्ञानी व्यक्ति को अपनी कोई सेवा नहीं देते थे । क्योंकि ज्ञानी समाज है इसमें, ज्ञानी समाज चल रहा है । अब इसलिए अज्ञानी को भी हमने इसमें स्थान दे दिया कि चलो भक्ति-सेवा करना है तो लगे रहो । भगवान् है । अपने ज्ञानी भाइयों से पूछो कि क्या सच्चाई है - जान लो ! समय पाकर जब देखेंगे कि तेरा सर्मपण-शरणागति पक्की है  और अब तू गिरने की स्थिति में नहीं है तो ज्ञान दे देगें। तो सर्मपण-शरणागति माने क्या ? यानी गिरने की स्थिति में न रह जाना ! सर्मपण-शरणागति क्यों ? इसलिए कि जीव पुन: भरम-भटककर उसमें गिर न जाय ।
परिवार में किसलिए ? कल बात हो रही थी । उन्ही लोगों से हुई जो लोग परिवार के जो कुछ लोग आए थे । एक प्रश्न उनसे कहे कि आप सब पूछते रहिए हम भी एक प्रश्न आप से पूछते है, बता दीजिए । परिवार किसलिये ? परिवार में जाना, परिवार में रहना किसलिए ? उनका जबाब था रोटी-कपड़ा-मकान - बस  ! मेरे लिए और क्या चाहिए ? हम कहे 'क्यों वह रोटी-कपड़ा-मकान यहाँ नहीं मिल रहा हैं ?' पूछे वह रोटी कपड़ा मकान यहाँ नहीं मिल रहा है क्या ? उस रोटी-कपड़ा-मकान पर ही जीवन बेंच देना --रोटी-कपड़ा-मकान पर ही झूठ-चोरी-बेइमानी करना हर प्रकार का पाप-कुकर्म करना पड़ रहा है । गृहस्थ परिवारिक जनों को नाना प्रकार की झूठ, फरेब, चोरी, बेईमानी करना पड़ रहा है । किसलिए ? रोटी कपड़ा मकान के लिए न। ये जो अमीर हैं, अमीर कहलाते हैं, बनते हैं, उनको भी पाप-कुकर्म, चोरी-बेईमानी करनी पड़ रही है । किसलिए ? साधान और सम्मान के लिए । उनको भी यह पाप कुकर्म करना पड़ रहा है । किसलिए ? साधन और सम्मान के लिए ।
ये ही पाँच चीजें संसार में मिलती हैं । किसी को (गरीब है तो) रोटी- कपड़ा-मकान पर अपना जीवन बेचता है और किसी को (अमीर है तो) दो शब्द और जोड़ दीजिए -- 'साधन  और सम्मान' के लिये अपना जीवन  बेंच दिया है । राष्ट्रपति महोदय या प्रधानमंत्री भी इसी पाँच से ग्रसित हैं । वे भी इसी पाँच में कहीं जकड़े हैं । उनको भी यही पाँच चाहिए। यदि रोटी, कपड़ा, मकान का उनको चिंतन नहीं है तो साधन और सम्मान का चिंतन उनको भी जकड़े हुए है । इसी के लिए वे भी पाप -कुकर्म करने में लगे हुए हैं ।
जबकि इन पाँच चीजों का चिंतन ज्ञान के क्षेत्र में किसी को करने के लिए स्वीकृति ही नहीं है । किसी को स्वीकृति ही नहीं है । किसी के लिए स्वीकृति नहीं हैं  कि आप रोटी, कपड़ा, मकान, साधन, सम्मान सोचे। इनके बारे में सोचने के लिए भी यह स्थान नहीं है । केवल देखो मिल रहा है कि नहीं ? केवल देखो । केवल देखो कि मिल रहा है कि नहीं ? इसके लिए न तेरे को चिंतन करना है, न झूठ बोलना है । न बेटे को पाप-कुकर्म करना है,न चोरी-बेईमानी करना है । तू ईमान-सच्चाई से रहकर देख कि ये तेरे को मिल रहा है कि नहीं ? यदि इन्हीं के लिए घर-परिवार नौकरी-चाकरी में जीवन बेचना है तो यहाँ आ ! ये सब यहाँ चिंतन का विषय ही नहीं है । यहाँ ये तो मिलना ही मिलना है । यहाँ तो जीव को लगाया जा रहा है भगवद् भक्ति-सेवा में । यहाँ जो जीवन लग रहा है, यहाँ जो शरीर का प्रयोग है, भक्ति-सेवा में है । भक्ति-सेवा का फल मुक्ति-अमरता होता है । जीव को मोक्ष, जीवन को यश-कीर्ति । यह है भक्ति-सेवा का फल । जीव को मोक्ष, जीवन को यश-  कीर्ति । ये रोटी कपड़ा मकान साधन और सम्मान पीछे-पीछे रहती है फिरती फिरती ॥ भगवान् वालों के लिये । तभी उन परिवार वालों से पूछे । इसका हमको जवाब बस इतना ही के लिए दे दीजिये? फिर घर-परिवार की जरूरत ? जब पाप-कुकर्म करके रोटी, कपड़ा, मकान हमको जुटाना है तो हम यदि ईमान-सच्चाई से जुटा सकते हैं तो पाप में जीवन को ले जाने की जरूरत? पाप-कुकर्म में जाने की जरूरत ? चुप हो गए ।
अरबों-खरबों रूपए खर्च हो रहा है हिजड़ा बनाने के लिये । नसबंदी करा करके क्या समझाया जा रहा है ? तुम्हारे पास क्षमता शक्ति नहीं है कि तुम परिवरिश कर सको । 'अगला बच्चा अभी नहीं, और दो के बाद कभी नहीं'। क्यों भाई ? परिवरिश नहीं कर पाओगे । देख-भाल ही नहीं कर पाओगे । क्या पढ़ाई है इन हिजड़ी सरकारों की ! क्या सूझ-बूझ है इन हिजड़ी सरकारों की ! देश-दुनिया ये हिजड़ी सरकारें जो हैं, अपने अक्षमता को सामने नहीं ला रही हैं । और साफ जो है प्राकृतिक परिवर्तन में लगी       हैं । हिजड़ा बनाने में लगी हैं पुरुषों को । बांझ ! बांझ बनाने में लगी हैं स्त्रियों को, महिलाओं को ।
देखिए न साधु-सन्तों को, महात्माओं को । आओ आओ हमारे यहाँ आओ ! तेरे लिए सारी व्यवस्था है आओ । आओ कभी भी यह नहीं चिंतन है, कभी भी यह नहीं महसूस हुआ कि संख्या यहाँ हजार हो जाएगा तो हमारे पे भार हो जाएगा। यहाँ लाख लोग आ रहने लगे तो हमारे पर भार हो जाएगा । कैसा भार ? कैसा भार ? किस बात पर भार होगा ? हम लोग तो हर, लाखों पर्चा-पैम्फलेट्स, बुकलेट्स बाँटते फिरते हैं । यानी हर समय कुछ न कुछ वितरण हो ही रहा है  कि आओ आओ ! यह तेरा असली घर है ! तेरे जीव को मोक्ष है जो जीवन का उद्देश्य है । जो करोगे वो यश-कीर्ति है । यह कोई दलील नहीं है । यह हर कोई देखे । यह पुरुषोत्तम धाम आश्रम नौ-दस साल का आश्रम है । हजारों साल से ऊसर पड़ा हुआ एक जमीन था। कौनो पूछ नहीं रहा था इस जमीन को। हजारों साल से पड़ा हुआ ये ऊसर धुयी जमीन थी । यहाँ कोई रास्ता नहीं चलता था सूरज अस्त होने के बाद । यह चोरों व बदमाशों का डेरा हो जाता था । यही जगह है आज आठ दस साल में । देखिए की यश-कीर्ति के लायक है कि नहीं ? हजारों साल से बसा हुआ अगल-बगल में गाँव है। बहु और बेटियों को बरसात में निकलने का जगह नहीं  । न घर में शौचालय है, न गाँव से बाहर ही है । न घर से बाहर निकलने का रास्ता है । उसी पांख में उसी बरसात में । आखिर वो भी तो घर की बहुएँ हैं । घर की लड़कियाँ हैं सयानी । रात में चाहे सुबह-शाम कभी भी जाती होंगी। सब चारों तरफ पानी लगा है । कैसे क्रियाकलाप से निवृत होती होंगी ? क्या घर के गार्जियन को नहीं सोचना चाहिये ? क्या ये गाँव के समाज को नहीं सोचना चाहिए ? क्या ये गाँव के समाज को घर परिवार के लोगों को नहीं सोचना चाहिए ? लड़कियों की, बहुओं की मर्यादा तो परदा में है न! उनकी मर्यादा तो परदा में है न ! जितना ही अधिक परदा दिया जाएगा उतना ही वो मर्यादित रहेगी । उतना ही समाज मर्यादित रहेगा । जितना ही उनको अधिक परदा दिया जाएगा उतना ही समाज मर्यादित रहेगा ।
टहलने के लिए किसी भी दो चार दस गांव के बीच में कोई जगह नहीं है कि कोई बैठ करके थोड़ा सा मन अशांत हो, मन कहीं उद्विग्न हो कहीं घूम-टहल करके शांति महसूस कर ले । आप देखिए दस साल का जगह है। जो यहाँ रह रहे हैं, ये भी तो अपना जीवन घर-परिवार में रोटी-कपड़ा-मकान ही पर न बेचे थे । इनका भी तो जीवन घर में मात्र रोटी-कपड़ा मकान पर ही न बिका था । तब भी ये कर्ज से लदे थे पाप कुकर्म से सने थे । झूठ, चोरी, बेइमानी में । कौन परिवार है जो झूठ, चोरी, बेइमानी से नहीं गुजर रहा है ? एक कोई शान से बोलने वाला व्यक्ति मिले तो सही कि हम उसको दिखलावें कि तू कहाँ झूठ चोरी बेइमानी कर रहा है । सबसे बड़ा झूठ दुष्कर्मी तो वही वह हो गया जो अपने मंजिल से विमुख हो गया । जीव को मिला था यह शरीर की अपने मंजिल को प्राप्त करेगा, मुक्ति-अमरता को प्राप्त करेगा। ये  अपने आप में एक दुष्कर्म है । ये अपने आप में एक कुकर्म है । शरीर मिली थी भगवान् के लिए । शरीर मिली थी मुक्ति-अमरता को पाने के लिए। आ इस शरीर को घर-परिवार बेटा-बेटी को दे दिया ! ये अपने आप में एक दुष्कर्म नहीं तो और क्या है ! तो इस तरह से जो है हम परिवार तोड़ करके आप लोगों को घर-परिवार से हटा करके, हमको व्यक्तिगत रूप से क्या मिल रहा है ।
हम भी कही नौकरी करते तो आप ही लोगों की तरह से दो-चार घंटा मेहनत करते, दो-चार-छ: घंटे मेहनत करके फिर आकर खाते-पीते टांग पसारकर सो जाते। लेकिन हमको मालूम था, हमको दिखाई देता है कि यह खा पीकर सो जाना --यह जीवन का उद्देश्य नहीं है । जीवन का जो उद्देश्य है --जीव को परमेश्वर से मिलाते हुए परमेश्वर के शरणागत बनाते हुए मोक्ष का पात्र बनाना । ये तो भ्रम वश, भूल वश भटक करके जो घर-परिवार में फँस गया है । जो गिर-पड़ चुका है, उस भवकूप में उस भवकूप से निकलना होगा। भवसागर से निकालना, माया जाल से निकालना ही सद्गुरु का कर्तव्य है । ये ज्ञानी हैं --यहाँ पढ़ते है मंदिर में कि 'त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव' कोई ज्ञानी बतावे तो सही कि क्या वह 'त्वम्' उसे नहीं मिला है ? वही तो भगवान् है। ज्ञानी एक बार अपने ज्ञान को स्मरण में लावें तो वही तो मिलता है । 'त्वम्' ही तो मिलता है । 'त्वम्' ही तो मिलता है । कौन  'त्वम्'? जो सारे ब्रम्हाण्ड का माता-पिता है ।  सारा ब्रम्हाण्ड जिसमें स्थित है । सारा ब्रम्हाण्ड जिससे उत्पन्न होता है, चालित होता है और अन्तत: जिसमें विलीन हो जाता है । वही तो मिलता है ज्ञान में । अब रही चीज ई कि जब ज्ञान मिलता है तो थोड़ी देर के लिए बड़ा उत्थान आता है शरीर में। चलते गाँव-घर को लोगो को खूब बताते कि हमको ये ज्ञान मिला है । ऐसा ज्ञान मिला है । घर-परिवार को बताते, हित-नात को बताते, लोगों को बताते । अब हम फँस थोड़े पाएंगे । अब हम थोड़े फँस सकते हैं । अरे फँस तो गया ईश्वर, अभी तो आप को परिवार दिखाई दे रहा है -- तुम जीव हो । जीव भी नहीं हो, शरीर मान रहे हो । जब घर-परिवार दिखाई दे रहा है, उधर आर्कषण बन रहा है, एक सेकेण्ड के लिए भी बन गया कि हमको घर-परिवार में जाना है, उसी समय तुम पापी-दोषी हो गये। जो खेत बेच दिया गया, आ उसको फिर हमार कहना क्या वह दोष-अपराध नहीं है । जिस खेत की रजिस्ट्री हो गयी जो खेत बिक गया । जो  खेत जिसका है उसको वापस लौटा दिया गया । आ तब वो लगे कि हमार है तो क्या एक बार फिर से पूछिये तो सही वो दोष अपराध नहीं है । ज्ञान मिलता किसको है ? जो भगवान् को अपने आप को समर्पित-शरणागत करता है । उसी को ज्ञान मिलता है ।
अब तक ब्रम्हाण्ड का यही नियम है, आज का यह नियम नहीं है। सृष्टि में सत्युग से लेकर द्वापरयुग, कलियुग में जिस किसी को ज्ञान मिला है, जब भी ज्ञान मिला है तो समर्पण-शरणागति के आधार पर ही ज्ञान मिला । जब तन, मन, धन शरीर भगवान् को सर्मपित-शरणागत हो गया है । रह गया है कि हम-हमार का अभी  लड़कवा हइए है, एक सेकेण्ड के लिए ही सोचे कि ये लड़का है, इसका होना है यानी एक सेकेण्ड के लिए वही गिर जाना है ।
ईश्वर कभी ईश्वर था । जब परमेश्वर से पृथक्करण हुआ था तो वह ब्रम्ह शक्ति था, शिवशक्ति था लेकिन माया के क्षेत्र मे जरा सा कदम रखते ही माया उसे झपट्टा मार कर आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह कहलाने वाले को फट जीव में परिवर्तित कर दिया । आ फिर से नाच नचाना शुरू कर दिया --नचाना शुरू कर दिया। यहाँ छहलाव हो रहा है कि हम एक दिन के लिए घरवा चले जाते !  ज्ञान में अभी चार दिन भी नहीं हुये --चार दिन पैदा हुए नहीं हुये । मजबूती आ गई ज्ञान की ! अरे तुम ये नहीं समझ रहे हो कि तुम याद कर रहे हो --हमारा घर-परिवार है, यही तुम्हारी कमी हो गयी। आ इसी के तुम शिकार हो गये ।
तो इस तरह से जो है हम को कौन क्या देता हैं ? रह करके यहाँ कोई क्या देता है हमको ? रह करके एक बार पूछो तो सही । कौन क्या देगा किसके पास क्या है कि हम को क्या देगा ? जिसका किसी का कुछ लिए भी होगें तो इस संसार में दुनिया का सबसे घृणित निन्दित चीज ही लिये होंगे। झूठ, फरेब, माया का हरण करते हैं । लोगों का झूठ लोगों का भार, लोगों का माया लेते हैं । देते क्या हैं ? दुनिया में, सृष्टि में सबसे पवित्रतम् ज्ञान !  लेने क्या है ? झूठ-फरेब में रहन सहन वाला माया । ये हमी नहीं लेते है --राम जी भी लिये थे ।'दीन्हीं ज्ञान हर लीन्ही माया' । राम जी जब ज्ञान देते थे, तब माया हरण कर लेते थे ।
कृष्ण जी तो खान-पान सब ही समर्पण करा लेते   थे । खाना भी समर्पण करा लिये थे । खाना भी आप अपने मन से नहीं खा सकते थे। जो भोजन करते हैं वो भी आप अपने आप नहीं कर सकते थे । उसको भी समर्पण ले लेते थे और जो प्रसाद मिलेगा उसे ही ग्रहण करना है । यहाँ से उसको भी बुध्दि का भी समर्पण कराते थे, प्राण का भी समर्पण कराते थे । हम तो बुध्दि फ्री कर दिये है आप लोगों को। बुध्दि से काम लो । देखो हमारे यहाँ से कोई नियंत्रण नहीं है । हमारा तो नियंत्रण मन पर है । मनमाना नहीं रहने देंगे। देखिए मन बुरा है कि नहीं ? देखिए, अरे तू मनमाना बैठा है ? मनमाना खड़ा है ? मनमाना चल रहा है ? मनमाना रह रहा है ? देखिये न, कौन उसको बुरा नहीं मानता ? मनमाना को कौन बुरा नहीं मानता । यह निन्दनीय है । हमारा एक ही मकसद है आप के जीवन को हमेशा बंदनीयता में ले जाना । निन्दनियता से निकाल करके बंदनीयता में ले जाना । एक ही हमारा प्रयोजन है ।  आ ई माई बाप, बेटा-बेटी इन सबों को तो अपना स्वार्थ साधना चाहिए । उनको तो रोटी कपड़ा चाहिए चाहे चोरी करके लाओ, चाहे लूट करके लाओ, चाहे घूसखोरी करके लाओ उनको तो पैसा चाहिए । उनको धन चाहिए । कभी सद्गुरु धन के लिए अपने किसी शिष्य को बेंच नहीं सकता है । कहीं भी सद्गुरु धन के लिए अपने शिष्य को बेंच नहीं सकता है । कभी सद्गुरु अपने शिष्य को पाप-कुकर्म का छूट नहीं दे सकता है । पाप-कुकर्म का छूट नहीं दे सकता है । और तो छोड़ दीजिए एक  झूठ बोलने का भी छूट नहीं दे सकता है । और तो छोड़ दीजिए एक झूठ बोलने का भी छूट नहीं दे सकता है । जबकि, हमारा तो ऐलान है कि सत्य के लिए सत्य धर्म संस्थापन के लिए हमको जो कुछ भी बोलना पड़ेगा बोलेंगे जो कुछ भी करना पड़ेगा करेंगे । सत्य के लिए परमेश्वर के विधान के लिये सत्य धर्म संस्थापन के लिए हमको जो कुछ भी बोलना पड़ेगा बोलेंगे जो कुछ भी करना पड़ेगा करेगें । सत्य के कीमत पर कुछ नहीं। हमारा तो हम जानते ही नहीं है कि सत्य है क्या झूठ है ? परमेश्वर के विधान में सत्य के विधान में, सत्य धर्म के संस्थापन के विधान में । हमको जो कुछ भी करना पडेग़ा करेंगे । इसको कीमत पर कुछ नहीं करेंगे ।
इस तरह से हर किसी को चाहिए । एक कदम भी, एक सेकेण्ड भी, एक चिंतन का एक अक्षर भी किसी को मनमाना नहीं होना चाहिए । सब विधान के अन्तर्गत होना चाहिए । सत्य विधान के अन्तर्गत होना चाहिए । हर किसी को चाहिए । क्योंकि सद्गुरु ऐसा हितकर है । जो सदा सर्वदा अपने शिष्य का, भक्त का सेवक का परम कल्याण ही चाहता है । परम कल्याण ही सोचता है । उसको बंदनीयता में ले जाना ही चाहता है । उससे अलग हटकरके किसी को कुछ सोचने की जरूरत ?
एक अदना सा देहातों में कहा जाता है कि माई-बाप के आज्ञा के आदेश के विषय में कुछ सोचना, कुछ चिंतन नहीं करना चाहिए । घर-परिवार के आदेशानुसार रहना चलना चाहिए । एक अदना घर-गाँव का होता है । जबकि वो बाप कुकर्म कराने वाला है । उसको पैसा चाहिए, उसको धन चाहिए । उनको अपने स्वार्थ की पूर्ति चाहिए । इससे कोई मतलब नहीं कि आप पाप-कुकर्म करते हो कि क्या करते हो ? हमतो इन्हीं को देख रहे हैं लड़कवा कितना छल से जो है चलिये एक दिन के लिये तहसील में कुछ काम है । का काम है भाई तो लिख पढ़ आइए । क्या वो भगवान के साथ घात नहीं होगा ? बाप जो है यानी बेटा-बेटा है जो अपने बाप जो है पतन-कुकर्म करना चाहता हो अपने बेटा से । बाप से आ चाहे बाप जो है अपना बेटा से । कैसा सम्बन्ध संसार का यही पाप-कुकर्म करने के लिए । अपना तो वह है जो हमेशा हमारे उत्थान, कल्याण मे हमारे मुक्ति-अमरता में सहायक हो । अपना हित वह है जो हमारे सन्मार्ग में सहायक में सहायक हो । हमारे सत्य के विधान में सहायक हो । क्या कहा था भरत जी ने जब भरत जी को बार-कार राजगद्दी होने लगी । राजा बना दिया जाने लगा । जब राम जी बनवास चले गये । राम जी का बनवास हो गया । जब दशरथ जी शरीर छोड़ गये । जब भरत और शत्रुघन आये अपने ननिहाल के उनकी राजगद्दी की तैयारी होने लगी। भरत जी सही कहने लगे । बार-बार वशिष्ट जी और सब लोग समझा रहे थे । जब भरत जी ने कि 'जरहु सो सम्पति,सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाई सन्मुख होत जो राम पद हरष न होत सहायी । जरहु से सम्पति, वह सारी सम्पति जलकर खाक हो जाय सदन यानी सब घर महल जलकर खाक हो जाय । सारे सुख जल जाये सुहृद जो हमारा बड़ा हितेच्छु बनता है वो भी जलकर खाक हो जाय। माता-पिता भाई बन्धु सब जलकर खाक हो जाय । यदि हमको भगवान् से मिलने में राम से मिलने में प्रसन्नता पूर्वक सहायक नहीं हो रहा है । हमको भगवान् से मिलने में प्रसन्नता पूर्वक यदि सहायक नहीं बन रहा है । तो सब जल करके खाक हो जाये।
देखिए ईमान और सच्चाई से भगवद् विधान में रहने पर भगवान वाला लाभ जो मुक्ति-अमरता मिलता है वो तो मिलता ही है पीछे-पीछे यश-कीर्ति भी मिलती है।
आ यश-कीर्ति तो मिलती ही मिलती है । जो भी व्यक्ति जिस महत्वाकांक्षा को पाले हुए रखता हैं संसार में वो कितने गुना हो करके पूरित हो जाती है प्राप्त होती है । उसका कुछ कहा ही नहीं जा सकता । लेकिन जरा सा धोखा, जरा सा खोट हुआ भगवद् विधान में तब सब किया कराया कुल व्यर्थ हो जाता है । ये सर्वोच्च पद है । ये सर्वोच्च पद है एक चपरासी नौकरी में से एक चपरासी को निकालना आसान नहीं है । यदि मनमाना तरीके से चपरासी को निकाल दिये उसके मालिक तो हाइकोर्ट में जाकर के फट से अपना नौकरी बहाल करके हर्जा-खर्चा सहित वो भी अपना ले लेगा । ये प्रधानमंत्री जी, मुख्यमंत्री जी यदि किसी मंत्री को निकाल दे, बाहर कर दें सर्वोच्च न्यायालय भी सुनवायी नहीं करेगा । दुनिया का कोई ऐसा विधान नहीं है जो उनको फिर से मंत्री बनवा दे ।
जो जितना ही ऊँचा पद है ना वो उतना ही । जितना ही सम्मानित है उतना ही गिरने का चाँस है । जो एम00 की डिग्री या डिप्लोमा है कोई हाईस्कूल का सर्टिफिकेट छीन नहीं सकता, कोई नहीं छीन सकता जो आपने हासिल कर लिया है लेकिन पी0एच0डी0 की डिग्री यदि आपने हासिल किया है तो हमेशा खतरे में है । जब कभी भी पता चल जाएगा कि जो शोध आप पेश किए हैं वो कहीं से किसी का चुराकर नकल करके पेश किये हैं । जिस दिन पता चल जाएगा उसी दिन आपका पी0एच0डी0 की डिग्री छिन जाएगी और उसका जुर्माना भी आप पर होगा । सजा भी हो सकता है आपका जो-जो लाभ नहीं जहाँ उस पी0एच0डी0 की डिग्री से पाये होंगे सब सीज हो जायेगा । जितना ही उच्च स्थान का है उतना ही जो है । उसका निर्वाह उसका निर्वाह भी उतनी ही सावधानी से करना पड़ता है । उसका निर्वाह भी उतना ही सावधानी से करना पड़ता है । ये भगवद् विधान है भगवान् का होने का मतलब सृष्टि का सर्वोच्च होना सभी देवी-देवता नीचे आ जाते हैं उसके । मंत्री होने का मतलब सभी अधिकारी से ऊपर सचिव भी नीचे हो जाते हैं । सचिव मुख्य सचिव जी लोग नीचे हो जाते हैं । मंत्री हो जाने का मतलब । कोई डिग्री, डिप्लोमा नहीं है । कोई डिग्री-डिप्लोमा नहीं है। इन्दिरा गांधी ने गृहमंत्री बना दिया जैलसिंह को पता नहीं हाईस्कूल पास थे कि नहीं थे । हाईस्कूल पास थे कि नहीं थे गृहमंत्री बना दिया । जब राष्ट्रपति बनाने की बात आयी तो लोग जो है आपत्ति उठाए कि जैल सिंह में क्वालीफिकेशन नहीं है । राष्ट्रपति होने का । जैल सिंह में वो क्षमता वह योग्यता जो है जानकारी की वह क्वालीफिकेशन वह
गुणवत्ता नहीं है कि भारत जैसे विशालकाय देश का राष्ट्रपति हो जाये । इन्दिरा गांधी ने एक दलील पेश किया सबकी वाणी बन्द हो गयी जो इस इतने बड़े विशालकाय देश का गृहमंत्री रह सकता है । वह गृह मंत्रालय संभाल सकता है वह राष्ट्रपति हो सकता है । एक दलील पेश किया कि जो इतने बड़े विशालकाय देश का गृह मंत्रालय संभाल सकता है। वह व्यक्ति राष्ट्रपति हो सकता है । सबकी बोलती बंद हो गयी । आ सच्चाई है । सच्चाई है जो यह विभाग सम्भाल ले, जो विदेश विभाग सम्भाल लें, जो वित्त विभाग सम्भाल लें, जो रेल विभाग सम्भाल ले वो तो किसी पद को सम्भाल लेगा । ये सब प्रमुख विभाग है । जो रक्षा विभाग सम्भाल ले । जो गृह विभाग सम्भाल ले, जो विदेश विभाग सम्भाल ले, जो रक्षा विभाग सम्भाल ले । ये ऐसे विभाग हैं जो इनको सम्भाल लेगा वह देश का कुछ भी सम्भाल लेगा । बहुत आसानी से हो जाएगा। बहुत भारी, बहुत बड़ी जिम्मेदारी की जगह है ये । बहुत भारी जिम्मेदारी की जगह है ये ।
 तो इस प्रकार से केवल पद-पत्र मिल जाना बड़ा चीज नहीं है । देखिये ना कितना महत्व था वह अटल बिहारी के बहुत प्रिय सबसे प्रिय सदस्यों में से थे जार्ज फर्नांडीस। वो केवल रक्षामंत्री भी हैं । अटल बिहारी बाजपेयी को बहुत प्रिय भी हैं । एक जरा सा, एक तहलका डाट काम आया है रेस्ट इंड । जरा एक शिकायत आ गया। कहाँ बाजपेयी रख पाए उनको ? इशारा कर दिए कि आपका इसी में गुंजाइश है कि पद छोड़ दीजिए। बस रक्षामंत्री जैसा मर्यादित-प्रतिष्ठित पद। रक्षा मंत्री जैसा इतना मर्यादित प्रतिष्ठित पद । और झटका में खत्म हो गया । किसी कोर्ट कहचरी में नहीं जा सकते ।
उसी तरह से भगवान् का हो जाना । भगवान् का मिल जाना जितना महत्वपूर्ण है उससे कम महत्वपूर्ण उसका निर्वाह नहीं है । जैसा पद है उसका निर्वाह भी उसी हिसाब से होना चाहिए ।
शेष अगली बातें अगले बुधवार को । आने वाले बुधवार को । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय ।  परम प्रभु परमेश्वर की जय ।  एक बात हर किसी को याद रखना चाहिए कि भगवद् क्षेत्र जो है । जिस तरह से सृष्टि की सर्वोच्च उपलब्धि है, सर्वोच्च उपलब्धि है । उसी तरह से सर्वोच्च सावधानी भी बरतने की जगह है । ये घर-परिवार वाले, जिस किसी के भी घर-परिवार वाले जो आते हैं । उतने तक के लिये यहाँ कोई हर्ज नहीं है । आते हैं स्वागत कीजिए खिलाइये, पिलाइये और स्वागत कीजिये । यदि आवश्यकता पड़ेगा यदि वो घर-परिवार के हीन होंगे तो एक आधबार दस-पांच रुपये की उनकी सहायता भी किया जा सकता है । लेकिन वो धंधा बनावेंगे तो वो भी नहीं होगा । एक आध बार उनका सहायता हो सकता है । इस उत्प्रेरण के साथ कि उनको भी भगवान् का हो जाना चाहिए । किस से कोई तो बेईमानी करने के लिये उत्प्रेरित किया जाता है । लूट-खसोट के लिए किया जाता हो किसी से कहा गया हो कि जाओ अपने घर से दस रुपया लाओ । किसी से भी कहा गया हो जाओ अपने घर पर दस रुपया लाओ । कोई कह सकता है ? ये सम्बन्ध जो है दस रुपये के लिये चाहे घर-परिवार की संपदा मात्र के लिए नहीं है । समर्पित इसलिये है कि सर्मपण के बगैर शरणागत परिपक्व ही नहीं होगा । शरणागत परिपक्व होगा ही नहीं, आप शरणागत हो ही नहीं सकते । शरणागति आपकी मान्यता ही नहीं पायेगी । इसलिये समर्पण अनिवार्य है और सर्मपण में जरा सा भी खोट हुआ उसमें कहाँ घर-दुआर, बेटा-बेटी, परिवार । जब भगवान् मिल गया तो वही सब कुछ है । इसके बाद भी अभी सम्बन्ध घर-परिवार का दिखाई देता है । यही तो पाप-कुकर्म है यही तो शरीर भाव है । आ सद्गुरु कभी इसको अलाऊ कर सकता है ? सब घर-परिवार वाले आते हैं न बतिया लिये तो ऐसा कहते हैं यदि महराज जी आज्ञा दे दें आदेश दें दे तो हम ऐसा कर लें । रे शैतान चार दिन का तुम अभी आया है । महाराज जी यही आज्ञा दें तो महराज जी ढ़केलने वाले हैं भवकूप में कि निकालने वाले । महाराज जी भवकूप से निकालने वाले हैं कि ढ़केलने वाले हैं उसमें । महाराज जी आज्ञा दे दें क्या नहीं हो जायेगा ? जब भगवान् पाये हो, भगवान् स्वीकार करके चल रहे हो । जब आज्ञा मिल जायेगा तो ब्रम्हाण्ड नहीं  इधर-उधर हो जायेगा । अब रही चीज ई कि आज्ञा दे दें तो। यानी अपना भार फेंका महाराज जी पर यानी महाराज जी झेंले । तुमको तो सीधे बोलना था हम अज्ञान में थे अनजान में थे । तेरा सम्बन्ध था । हमारा सम्बन्ध भगवान् से है। हमसे इतना ही लाभ पा सकते हो खाओ, पीओ रहो यहाँ का जो भी सुविधा है दो महीना, चार महीना दो वर्ष, दस वर्ष रहो । अभी उनका स्वागत लो पाँच पैसा ले जाओ । ये भगवत् क्षेत्र है । ये भगवत् क्षेत्र है । ये मुक्ति-अमरता का क्षेत्र है । भगवान् पा लेना ही पर्याप्त नहीं है । ये भजन जरा गाओ तो आप लोग कि प्रभु जी प्रेम से सहज, 'प्रभु जी से प्रेम निभाना क्या तुने सहज में जाना' । बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ।
हर ज्ञानी जी लोग आश्रम में रहने वाले ज्ञानी जी लोग इस भजन को समझेगें-सुनेंगे । ज्ञान में कैसी कैसी परीक्षाएँ होती हैं, कैसे-कैसे यानी सहन करना पड़ता है । ज्ञान पा लेना ही पर्याप्त नहीं है उसको निभाना। नौकरी पा लेना ही पर्याप्त नहीं है उसका निभाना । किसी पद को पा लेना ही पर्याप्त नहीं है उसका निर्वाह भी करना। भगवान् का मिल जाना, हो जाना पर्याप्त नहीं है उसका निभाना । उसका बने रहना भी अनिवार्य है । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय । ये भजन आप लोग सुनिये इसको सुनिये-समझिये और यदि भगवान् का होना चलना है । परमेश्वर तो परिवार कैसा ? आ परिवार तो परमेश्वर कैसा ? परिवार तो परमेश्वर कैसा ? परमेश्वर तो परिवार कैसा? परमेश्वर तो अपने आप में भरा पूरा पूरे ब्रम्हाण्ड का परिवार है । परमेश्वर तो अपने आप में सारे ब्रम्हाण्ड का भरा-पूरा एक परिवार है । उसके बाद अलग परिवार? गीता अध्याय 13 का श्लोक 10 और 14 का श्लोक 26 देख लेना आप लोग । भगवान् कभी व्यभिचारिणी भक्ति नहीं खोजता शालीन पुरुष कभी वेश्या से शादी नहीं कर सकता । जब भगवान् के हो हमारा नाम का कोई चीज दिखाई दे रहा है तो यह भक्ति तो वेश्या से शादी नहीं कर सकता । जब भगवान् के हो और हमार नाम का कोई चीज दिखाई दे रहा है । व्यभिचारिणी भक्ति भगवान् स्वीकार नहीं करता । भगवान् भी हमारा रहेगा थोड़ा इधरो, थोड़ा उधरो । थोड़ा मनमानी, वही दो नाव पर चढ़ना क्या फाट कर मरना वाली ही है । बोलिए परम प्रभु परमेश्वर की जय!
------------ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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